DADA GURU EKTISA दादागुरु इकतीसा
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दादागुरु इकतीसा |
दादागुरु इकतीसा
-दोहा-
श्री गुरुदेव दयाल को, मन में ध्यान लगाय।
अष्ट सिद्धि नव निधि मिले, मन वांछित फल पाय॥
-चौपाई-
श्री गुरु चरण शरण में आयो, देख दरश मन अति सुख पायो,
दत्त नाम दुःख भंजन हारा, बिजली पात्र तले धरनारा॥1॥
उपशम रस का कन्द कहावे, जो सुमरे फल निश्चय पावे।
दत्त सम्पत्ति दातार दयालु, निज भक्तन के हैं प्रतिपालु॥2॥
बावन वीर किये वश भारी, तुम साहिब जग में जयकारी।
जोगणी चौसठ वशकर लीनी, विद्या पोथी प्रकट कीनी॥3॥
पांच पीर साधे बलकारी, पंच नदी पंजाब मझारी।
अंधों की आँखें तुम खोली, गुंगों को दे दीनी बोली॥4॥
गुरु वल्लभ के पाट विराजो, सूरिन में सूरज सम साजो।
जग में नाम तुम्हारो कहिये, परतिख सुरतरु सम सुख लहिये॥5॥
इष्ट देव मेरे गुरु देवा, गुणीजन मुनि जन करते सेवा।
तुम सम और देव नहीं कोई, जो मेरे हितकारक होई॥6॥
तुम हो सुर तरु वाँछित दाता, मैं निशदिन तुमरे गुण गाता।
पार-ब्रह्म गुरु हो परमेश्वर, अलख निरंजन तुम जगदीश्वर॥7॥
तुम गुरु नाम सदा सुख दाता, जपत पाप कोटि कट जाता।
कृपा तुम्हारी जिन पर होई, दु:ख कष्ट नहीं पावे सोई॥8॥
अभयदान दाता सुखकारी, परमातम पूरण ब्रह्मचारी।
महाशक्ति बल बुद्धि-विधाता, मैं नित उठ गुरु तुम्हें मनाता॥9॥
तुम्हारी महिमा है अतिभारी, टूटी नाव नयी कर डारी।
देश-देश में थम्भ तुम्हारा, संघ सकल के हो रखवाला॥10॥
सर्व सिद्धि निधि मंगल दाता, देव परी सब शीश नमाता।
सोमवार पूनम सुखकारी, गुरु दर्शन आवे नरनारी॥11॥
गुरु छलने को किया विचारा, श्राविका रूप जोगणी धारा।
कीली उज्जयिनी मझधारा, गुरु गुण अगणित किया विचारा॥12॥
हो प्रसन्न दीने वरदाना, सात जो पसरे मही दरम्याना।
युगप्रधान पद जन हितकारा, अंबड़ मान चूर्ण कर डारा॥13॥
मात अम्बिका प्रकट भवानी, मंत्र कलाधारी गुरु ज्ञानी।
मुगल पूत को तुरत जिलाया, लाखों जन को जैन बनाया॥14॥
दिल्ली में पतशाह बुलावे, गुरु अहिंसा ध्वज फहरावे।
भादो चौदस स्वर्ग सिधारे, सेवक जन के संकट टारे॥15॥
जो पूजे दिल्ली में ध्यावे, संकट नहीं सपने में आवे।
ऐसे दादा साहब मेरे, हम चाकर चरणन के चेरे॥16॥
निशदिन भैरु गोरे काले, हाजिर हुकम खड़े रखवाले।
कुशल करण लीनो अवतारा, सद्गुरु मेरे सानिधकारा॥17॥
डूबती जहाज भक्त की तारी, पंखी रूप धर्यो हितकारी।
संघ अचम्भा मन में लावे, गुरु व्याख्यान में हाल सुनावे॥18॥
गुरु वाणी सुन सब हरखावे, गुरु भव-तारण तरण कहावे।
समयसुन्दर की पंच नदी में, फट गई जहाज नयी की छिन में॥1॥
अब है सद्गुरु मेरी बारी, मुझ सम पतित न और भिखारी।
श्री जिनचन्द्रसूरि महाराजा, चौरासी गच्छ के सिरताजा॥20॥
अकबर को अभक्ष छुडायो, अमावस को चाँद उगायो।
भट्टारक पद नाम धरावे, जय-जय जय-जय गुणिजन गावे॥21॥
लक्ष्मी लीला करती आवे, भूखा भोजन आन खिलावे।
प्यासे भक्त को नीर पिलावे, जलधर उण वेला ले आवे॥22॥
अमृत जैसा जल बरसावे, कभी काल नहीं पड़ने पावे।
अन्न-धन से भरपूर बनावे, पुत्र-पौत्र बहु सम्पत्ति पावे॥23॥
चामर युगल ढुले सुखकारी, छत्र किरणिया शोभा भारी।
राजा-राणा शीश नमावे, देव परी सब ही गुण गावे॥24॥
पूरब पश्चिम दक्षिण ताई, उत्तर सर्व दिशा के माही।
ज्योति जागती सदा तुम्हारी, कल्पतरू सद्गुरु गुणधारी॥25॥
विजय इन्द्र सूरीश्वर राजे, छड़ीदार सेवक संग साजे।
जो यह गुरु इकतीसा गावे, सुन्दर लक्ष्मी लीला पावे॥26॥
जो यह पाठ करे चित्त लाई, सद्गुरु उनके सदा सहाई।
बार एक सौ आठ जो गावे, राजदंड बन्धन कट जावे॥27॥
संवत आठ दोय हजारा, आसो तेरस शुक्कर वारा।
शुभ मुहूरत वर सिंह लगन में, पूरण कीनो बैठ मगन में॥28॥
-दोहा-
सद्गुरु का सुमिरण करे, धरे सदा जो ध्यान।
प्रातः उठी पहिले पढ़े, होय कोटि कल्याण॥29॥
सुनो रतन चिंतामणि, सद्गुरु देव महान।
वंदन "श्री गोपाल" का, लीजे विनय विधान॥30॥
चरण शरण में मैं रहूँ, रखियो मेरा ध्यान।
भूल-चूक माफी करो, हे मेरे भगवान!॥31॥
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