युग प्रधान आचार्य प्रवर पूज्य श्री उमेशमुनिजी म.सा. ''अणु''
आचार्य श्री उमेशमुनिजी म.सा. अणु.
आगमिक विचारधारा वाले महान संत, श्रमण संघीय चतुर्थ पटधर,परम क्रियानिष्ठ,
जिनशासन गौरव, आत्मार्थी संतरत्न ,
युग प्रधान आचार्य प्रवर पूज्य श्रीमद् उमेशमुनिजी म.सा. ''अणु''
साभार : विदुषी महासाध्वी श्री संयमप्रभाजी म.सा.
(मोक्ष पुरूषार्थ ग्रन्थ से , संशोधन पूर्वक )
आगमिक विचारधारा वाले महान संत, श्रमण संघीय चतुर्थ पटधर,परम क्रियानिष्ठ,
जिनशासन गौरव, आत्मार्थी संतरत्न ,
युग प्रधान आचार्य प्रवर पूज्य श्रीमद् उमेशमुनिजी म.सा. ''अणु''
साभार : विदुषी महासाध्वी श्री संयमप्रभाजी म.सा.
(मोक्ष पुरूषार्थ ग्रन्थ से , संशोधन पूर्वक )
1 भक्ति गाथा का समर्पण !
मन का मंदिर जब श्रद्धा के दिपों से
झिलमिलाता हैं,तब सृजन होता है -
भक्ति गाथा का । यह ऐसे युग पुरूष
की गाथा हैं,जिनका नाम जुबां पर आते ही लाखो सिर
श्रद्धा से झुक जाते हैं,वंदन के लिए
हाथों की अंजलि बन जाती हैं और अंतर्मन उस
परमात्म-स्वरूप के सम्मुख आस्था के साथ
समर्पित हो जाता हैं ।
मन का मंदिर जब श्रद्धा के दिपों से
झिलमिलाता हैं,तब सृजन होता है -
भक्ति गाथा का । यह ऐसे युग पुरूष
की गाथा हैं,जिनका नाम जुबां पर आते ही लाखो सिर
श्रद्धा से झुक जाते हैं,वंदन के लिए
हाथों की अंजलि बन जाती हैं और अंतर्मन उस
परमात्म-स्वरूप के सम्मुख आस्था के साथ
समर्पित हो जाता हैं ।
2 असीम के लिए - असीम श्रद्धा के साथ !
जिनशासन गौरव युग प्रधान आचार्य प्रवर पूज्य
श्रीमद् उमेशमुनिजी म.सा. ''अणु'' । वह एसे
महाविभूति की व्यक्ति वाचक संज्ञा है,जो जाति-
सम्प्रदाय-समाज वाचक न रहकर विश्ववाचक
पहचान बन चुकी है - अपनी संयम-साधना से ,ज्ञान-
आराधना से, और शासन प्रभावना से । सरलता -
सहजता - ममप्रता का त्रिवेणी संगम पूज्य श्री में
देखा जा सकता हैं । भगवद् स्वरूप का दर्शन पूज्य
श्री में किया जा सकता हैं और आस्थायुक्त
अर्चना से मुक्ति का मार्गदर्शन
भी लिया जा सकता हैं।
अनुभूति के स्वरों में एक ही गान।
मेरे तों श्री उमेश - गुरू भगवान ।
वर्तमान के आप ही हो वर्धमान ।
माने है जिन्हें सकल जहान ।
ऐसे पूज्य गुरूवर के लिए कुछ लिखना मानों बरगद
को गमले में सजाना , चिटीं का सागर तैर जाना ,
सूरज को दिपक दिखलाना - असंभव । असीम
को असीम से नापना संभव ही नहीं , फिर
भी नन्हीं भुजाओं से समुद्र की विराटता दिखाने
का बाल - प्रयास किया जा रहा हैं । उस असीम के
लिए असीम श्रद्धा के साथ..........
6 नाजों से पाला - जमाने से निराला !
माता-पिता एवं परिजनों द्वारा संस्कारों को प्राप्त
करते करते बालक ओच्छब का प्रवेश धर्मदास
विद्यालय में 7 वर्ष की उम्र में हुआ ।
वहाँ आपश्री का नाम ओच्छब से श्री उमेशचन्द्र
हो गया । जो उम्र खेलने - कूदने , रेत के घरौंदे और
मिट्टी के टीले बनाने की होती हैं , उसी उम्र में आप
गंभीरता से अध्ययन करते रहे । पहली कक्षा में
ही कालिदासजी का बाल रघुवंश पढ़ लिया ।
छठी कक्षा में कविता बनाना भी प्रारंभ हो गया ।
अन्य साहित्य के साथ धार्मिक साहित्य
का भी वाचन आप करते रहे और पढ़ते पढ़ते , संत-
साध्वियों से कहानियाँ सुनते सुनते , सुंदर अक्षरों में
व्याख्यान आदि के पत्र लिखते लिखते संसार
की असारता का बोध कब हुआ - यह
आपको भी पता नहीं चला ।
7 प्रगट हुआ वेराग - अंतर्मन जाग जाग !
डूंगर प्रान्त में विचरण करते हुए कविवर्य पू.
श्री सूर्यमुनिजी म.सा. का थांदला में पदार्पण हुआ
- प्रथम बार आपश्री ने पूज्य गुरूदेव के दर्शन किए
और आपको गुरूदेव की वह छवि संसार तरणी - भव
दुःखहरणी सी लगी । मन से समर्पण
तो हो गया और इस दिशा में पुरूषार्थ भी होने
लगा । पू. गुरूदेव श्री के पश्चात् धार्मिक
पाठशाला में एकाध माह में ही अर्थ सहित
प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कर लिया और पूज्य
श्री का संवत् 1999 का वर्षावास पेटलावद
था वहाँ जाकर सुना भी दिया । अब आपके हर कार्य
मे जीवन के अंधकार से आत्मा की उज्ज्वलता में
प्रवेश करने का निश्चय पूर्णतः सावधान था । सच
में , किसी धर्म प्रवर्तक की चर्चा जब
धरा करती हैं तो वह सिर्फ उसमें रहे हुए संस्कार -
बल का ही प्रकटीकरण होता हैं । और एसे ही शुभ
संस्कारों के कारण वैराग्य के भाव आप श्री की हर
क्रिया में व्यक्त हो रहे थे ।
8 वैराग्य भावो के संग - श्रद्धा और आचरण
का रंग !
समय अपनी गति से बढ़ रहा था , धर्म
श्रद्धा का रंग चढ़ रहा था और जीवन में घटित
घटनाओं का निमित्त एक इतिहास गढ़ रहा था ।
गृहवास में रहते हुए कभी लोगस्स सुनाकर
किसी महिला का जहर उतारा ,
तो कभी देवी शक्ति के साथ निर्भिकता से
चर्चा की । देव गुरू धर्म के प्रति श्रद्धा तो दृढ़
थी ही , अब आचरण की दिशा में भी चरण बढ़ते गए
। पूज्य गुरूदेव के प्रति आपने अपने
भावों को व्यक्त किया । आंतरिक आशिर्वाद
भी प्राप्त हुए । फिर भी पुरूषार्थ
तो आपको ही करना था । भावना दृढ़ थी ।
अतः दीक्षा हेतु आवश्यक क्रियाएँ भी समझी ।
17 वर्ष की उम्र में लोच करना भी सिखा । बचपन
में पराठे पसंद थे , लेकिन " चाय तो छुटे नी , ने कई
दीक्षा लेगा " माताजी के इन शब्दों में
ही अप्रत्यक्ष प्रेरणा रही थी कि किसी भी चीज
का आदि बनने वाला संयम का पालन कैसे कर
सकता हैं , अतः उसी समय संकल्प बद्ध हो गए -
कि अब चाय नहीं पीना । सच में दृढ़ संकल्पी के लिए
असंभव कुछ भी नहीं होता ।
9 चैन की सांस - शिवरमणी की आस !
संसार के बंधनों में बांधकर माता - पिता अपने
कर्तव्यों से मुक्त होना चाहते हैं । इसी में वे जीवन
की इति श्री मान लेते हैं । ऐसा ही समझ रहे थे
पिता श्री रिखबजी । आपकी धार्मिक भावनाओं से
तो वे अनजान नहीं थे , लेकिन वे नहीं चाहते थे
कि हमारी आकांक्षाओं का शिखर साधु बनकर
आध्यात्म की राह पर चले । वे जिस मार्ग
को कंटकाकीर्ण मान रहे थे , उसी मार्ग
को फूलों सा कोमल मानकर चलने के लिए आप
संकल्प बद्ध थे । परन्तु बड़ों के समक्ष कुछ न कह
पाने की झिझक अवरोधक बन गयी ओर
परिजनों द्वारा आपकी सगाई तेरह वर्ष की उम्र में
थांदला में कर दी गयी । रकम चढाने का मुहूर्त
भी नियत हो गया और सगाई रस्म के पहले दिन घर
में तो चक्की बनाने के लिए
मुठड़िया तली जा रही थी और आप खिसक
गए........... । गाँव बाहर एक गढ्ढे में संसार के
गढ्ढे से बाहर निकलने की सोच में देर रात तक बैठे
रहे - परिजन ढूंढ़ते ढूंढते आए और घर ले गए ।
परिजनों ने आपके मन की थाह ली - आपका विरक्त
मन तैयार नहीं हुआ , अतः सगाई छोड़ दी गयी ।
आपने चैन की सांस ली - शिवरमणी की आस में ।
10 मोह हारा- पुरूषार्थ जीता !
सगाई के बंधनों से मुक्त होने के बाद विशेष रूप से
आपने स्वयं को एकांत आत्मचिंतन और विशेष
आराधना से स्वयं को जोड़ लिया । परिजनों की मोह
ममता की लहरे आपके शांत मानसरोवर को विचलित
नहीं कर पायी । अब तो एक ही धुन बस , मुझे
तो दीक्षा ही लेना हैं । बड़ो की मर्यादा का ख्याल
था - संकोच था ही , अतः अपनी भावनाओं
की अभिव्यक्ति पत्रों के माध्यम से होती थी ।
परिजनो का प्रयास चल रहा था कि आपका वैराग्य
कैसे उतरे पर वैराग्य
बाहरी चोला नहीं जो उतारा जाय । आपको चार माह
के लिए बंबई में भी रखा गया , वहाँ से
भी आपश्री ने लिखा मुझे बंबई क्या विलायत
भी भेज दो , तो भी में अपने निर्णय पर अटल
रहूँगा । पुनः थांदला आए । मामाजी के समक्ष अपने
भाव रखे माताजी के सहयोग से इन्दौर पू. गुरूदेव
श्री के सानिध्य में अध्ययनार्थ पहुँच गए । अब
वहाँ आप वैरागी उमेशचन्द्रजी बन गए और साक्षात
गुरू चरणों में रहकर वैराग्य भावों को पुष्ट करने लगे
। वहाँ आपश्री ने संस्कृत में प्रथमा ,
कलकत्ता की काव्य - मध्यमा तथा प्रयाग
की साहित्य रत्न की परिक्षाएँ उत्तीर्ण की ।
नवकारसी , पाक्षिक उपवास भी प्रारंभ किए और
5-6 वर्षों की कड़ी परिक्षा के बाद
परिजनों को दीक्षा हेतु आज्ञा प्रदान करनी पड़ी ।
चैत्र सुदी तेरस महावीर जयंति , संवत् 2011
15/4/1954 का दिन संयम आरोहण
की प्रतिज्ञा हेतु तय हुआ । कई महान संत
संतियों के सुसानिध्य में मालव केशरी पूज्य
श्री सौभाग्यमलजी म.सा. ने रिखबचन्दजी की पंचम
संतान को संयम रत्न प्रदान कर कविवर्य पूज्यपाद
श्री सूर्यमनिजी म.सा. के पंचम शिष्य के रूप में
पंचम पद प्रदान किया ।
मानव से महामानव बनने वाले इस संयमी साधक के
लिए मानवों ने ही नहीं , देवों ने भी मंगल कामनाओं
की बरखा की और आपका प्रसन्न मन गाने लगा -
आज मैं लक्ष्य़ पाया जिंदगी का ध्रुव
सितारा ..........
11 हरिसो गुरू आणाए - जगावेइ मणेबलं !
अच्छा गुरूकुल मिलता है - पुण्य के आधार से और
फलता हे योग्यता के आधार से । ज्योतिष शास्त्र
के अनुसार जिसकी कुंडली में गुरू-ग्रह केन्द्र में हो ,
उसे अन्य ग्रहों द्वारा होने वाले दूषण व्यथित
नहीं करते, उसी प्रकार जिसके ह्रदय के केन्द्र
स्थान में गुरू हो उसका जीवन भी निर्बाध रूप से
उन्नति की ओर अग्रसर रहता है ।
जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा , गुरू चरणों में समर्पण
और प्रसन्नता पूर्वक जिनेश्वर भगवान
की आज्ञा का पालन - इन तीन तत्वों ने मिलकर
आप श्री में उत्तम शिष्यत्व का निर्माण किया ।
पूज्यपाद गुरूदेव श्री ने भी एक समर्थ शिष्य
को पंचम पद की उँचाईयों पर पहुँचाने में यथाशक्य
सहयोग दिया । विनम्रता के साथ आप
भी सफलता की डगर पर बड़ते रहे ।
दोपहर में आड़ा आसन नहीं करना , प्रातः तीन-साढ़े
तीन बजे उठकर साधना में प्रवृत्त होना , प्रतिदिन
दो हजार गाथा प्रमाण स्वाध्याय करना , प्रतिवर्ष
प्रायश्चित तप पचौला, छः, आठ आदि करना ।
पाक्षिक उपवास, अन्न-पानी की मर्यादा, पद्मासन
में प्रतिदिन एक घंटे तक 40 ल ोगस्स का ध्यान,
बरसों से एकान्तर एक समय अन्न ग्रहण,
दीक्षा ली तब से प्रथम प्रहर में अन्न नहीं लेना -
आदि कई नियमों का आपने अपने संयम काल में
यथावत् पालन किया । सच में, आपने ही तो लिखा हैं
----
हसियो गुरू - आणाए - जगावेइ मणेबलं । --
प्रसन्नता पूर्वक गुरू आज्ञा का पालन मनोबल
को जाग्रत करता है ।
12 संयम यात्रा के साथ - साथ साहित्य यात्रा !
दीक्षा के पूर्व तो अग्रज श्री रमेशजी के साहित्य-
संग्रह से आप पढ़ते रहे । कविता बनाने
की प्राथमिक शिक्षा भी उन्हीं से प्राप्त हुई । फिर
बंबई - इंदौर के ग्रन्थालयों से भी अध्ययन किया ।
सन् 1947 से आप श्री का धार्मिक-लेखन प्रारंभ
हुआ , जो सम्यग्दर्शन पत्रिका के माध्यम से
प्रकाशित होता रहा । वैराग्य काल में आप श्री ने
प्राकृत भाषा का भी अध्ययन किया ।
दीक्षा लेने के पश्चात् प्रथम वर्षावास में ही आप
श्री ने सूत्रकृतांग जैसे दार्शनिक आगम का अनुवाद
लिखा । तत्पश्चात् भी यह क्रम बना रहा ।
फलस्वरूप आप श्री की लगभग 50 से भी अधिक
किताबे व्याख्यान - संग्रह, अनुप्रेक्षा-ग्रन्थ,
जीवन चरित्र, तत्व चिंतन, उपन्यास और कविता-
स्तुति संग्रह इस प्रकार विविध विधाओं में
प्रकाशित है, तो लगभग पचासौं रचनाएँ अप्रकाशित
भी हैं । आपने दिवाकर-देन, सूर्य-साहित्य भाग 1
से 4 का संपादन भी किया है, तो आगमों का अनुवाद
भी किया है । विवेचनात्मक ग्रन्थ भी लिखे हैं
तो प्राकृत भाषा में स्वयं रचित एवं विवेचित मोक्ष
- पुरूषार्थ, नमोक्कार अणुप्पेहा,
सामण्णसढिड्म्मो आदि मौलिक रचनाएँ
अपना विशिष्ट महत्व रखती है ।
इनमें प्रमुख मोक्ष-पुरूषार्थ ऐसा अनमोल ग्रन्थ है,
जिसकी 2517प्राकृत गाथाओं की रचना आपने पहले
ही कर ली और विवेचन अनुवाद बाद में लिखा । यह
ऐसा अनमोल ग्रन्थ है, जो भव्य आत्माओं
को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में अत्यंत
उपयुक्त है । धर्मदास सम्प्रदाय के
गौरवशाली ईतिहास पर आप द्वारा लिखित पुस्तक "
श्रीमद् धर्मदासजी म. और उनकी मालव शिष्य
परम्परा " विशेष रूप से पठनीय हैं ।
आपश्री का यह साहित्य के क्षेत्र में योगदान
युगों-युगों तक साधकों के लिए मार्गदर्शन
करता रहेगा । आपकी प्रत्यक्ष
उपस्थिति का अनुभव कराएगा और चतुर्विध-संघ
सदैव आपके प्रति कृतज्ञ रहेगा ।
13 लघुता में प्रभुता -- प्रभुता में लघुता !
गृहस्थावस्था में एक बार गाँधीजी की आत्मकथा में
आपने पढ़ा कि सत्य के अन्वेषक को रजकण से
भी छोटा बनना पड ़ता है । उस समय उम्र थी 17
वर्ष की आपने स्वयं के लिए चिंतन किया कि मुझे
परम सत्य की खोज करना है , अतः मुझे भी लघुतम
होना ही होगा । तभी से आपना अपना उपनाम "अणु"
रख लिया । आपकी रचनाए अणु जैन के नाम से
भी प्रकाशित होने लगी । वास्तव में , स्वयं
को छोटा मानने वाला ही महान होता हैं ।
जब प्रवर्तक पू. गुरूदेव श्री सूर्य मुनि जी म.सा.
और मालव केसरी जी म.सा.
दोनों महाविभूतियों का अल्प अन्तराल में
ही देवलोकगमन हो गया तब संघ के नेतृत्व
का दायित्व आपको सौंपा गया । मन तो तब
भी नहीं था पर पू. गरूभ्राता के कहने से मौन रहे ।
जब सन् 1987 में पूना सम्मेलन में श्रमण संघ के
भावी आचार्य पद हेतु निर्विरोध आपसे निवेदन
किया गया , उस समय भी आपने सविनय मना कर
दिया और जब सन् 2003 में श्रमण संघ में उथल-
पुथल हुई , 'आप मानो या ना मानो , हमनें तो आप
श्री को आचार्य मान ही लिया हैं ' ऐसा वरिष्ठ
संतो द्वारा आपको कहे जाने पर भी आपने सुझबुझ
के साथ उपाय भी सुझाये । लेकिन होनहार बलवान
थी । इस कारण से कइ प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रतिकूल
परिस्थितियाँ भी निर्मित हुई और ऐसे माहोल में
भी आपने अपने आप को संयत ही रखा। प्रशंसा में
फूले नही , निंदा में आत्मभान भूले नहीं । पद
दिया तो भी स्वयं को चौकीदार ही माना।
न ज्ञान का गर्व , न क्रिया का अहं , न पद
का मद । सदा समभाव में लीन , आत्म लक्ष्य में
पीन , ध्येय का ही चिंतन रात- दिन । चाहे
छोटा हो या बड़ा - सभी पर समत्व-युक्त
कृपा की अमि वर्षा , सभी के हित
की कामना ,सभी के सुख हेतु सद् भावना - ऐसी कई
विशेषताओं के होते हुए भी कोइ स्तुति करे ,
तो 'मेरी नहीं - तीर्थंकर भगवान की स्तुति करो । '
ऐसी सद्प्रेरणा देते थे ।
14 आपश्री की शिष्य-सम्पदा !
१.आगम विशारद बुध्द पुत्र वर्तमान प्रवर्तक
शास्त्रज्ञ पं रत्न पूज्य श्री जिनेन्द्र
मुनि जी म.सा. , २.सरल स्वभावी पूज्य
श्री वर्धमान मुनि जी म.सा. , ३.अणु वत्स पं पूज्य
श्री संयतमुनि जी म.सा. , ४.संघहित चिंतक
तत्वज्ञ पूज्य श्री धर्मेन्द्र मुनि जी म.सा. ,
५.वयोवृद्ध पूज्य श्री किशन मुनि जी म.सा. ,
६.युवाप्रेरक पूज्य श्री संदीप मुनि जी म.सा. ,
७.स्वाध्याय रसिक पूज्य श्री प्रभास
मुनि जी म.सा. , ८.तप प्रेरक पूज्य श्री दिलीप
मुनि जी म.सा. , ९.पूज्य श्री आदिश
मुनि जी म.सा. , १०.पूज्य श्री हेमन्त
मुनि जी म.सा. , ११.पूज्य श्री पुखराज
मुनि जी म.सा. , १२.पूज्य श्री अभय
मुनि जी म.सा. , १ ३.पूज्य श्री अतिशय
मुनि जी म.सा. , १४.पूज्य श्री जयन्त
मुनि जी म.सा. , १५.पूज्य श्री गिरिश
मुनि जी म.सा. , १६.पूज्य
श्री रवि मुनि जी म.सा. , १७.पूज्य श्री आदित्य
मुनि जी म.सा. गुलदस्ते में सजे विविध
पुष्पों की तरह विविधता एवं गुण - सुरभि से युक्त हैं
। इनमें कोई शास्त्रज्ञ हैं , तो कोई वक्ता-लेखक-
चिंतक हैं । कोई तपस्वी हैं, कोई एकांत-प्रिय हैं,
कोई मौन साधक हैं । दीक्षा पूर्व लगभग
सभी उच्चशिक्षण प्राप्त हैं एवं आत्मलक्ष्यपूर्वक
आपश्री के पावन सानिध्य में आए हैं और
आराधना में स्थित हैं ।
15 धन्य हुए चातुर्मास स्थल !
सन् (ई.) स्थान सन् (ई.) स्थान
1954 सैलाना 1955 माटुंगा (बम्बई)
1956 कांदेवाड़ी(बम्बई) 1957 इंदौर
1958 थांदला 1959 सैलाना
1960 उज्जैन 1961 कोटा (राज.)
1962 जयपुर(राज.) 1963 दिल्ली (केन्द्र)
1964 बूँदी (राज.) 1965 थांदला
1966 झाबुआ 1967 मेघनगर
1968 बदनावर 1969 सैलाना
1970 शुजालपुर 1971 रतलाम
1972 थांदला 1973 बदनावर
1974 रतलाम 1975 बदनावर
1976 बदनावर 1977 बदनावर
1978 बदनावर 1979 बदनावर
1980 बदनावर 1981 बदनावर
1982 रतलाम 1983 झाबुआ
1984 थांदला 1985 कुशलगढ़ (राज.)
1986 मेघनगर 1987 कोपरगांव (महा.)
1988 घोटी (महा.) 1989 नागदा (धार)
1990 कोद 1991 पेटलावद
1992 खाचरौद 1993 लीमड़ी (गुज.)
1994 रतलाम 1995 बड़वाह
1996 बदनावर 1997 थांदला
1998 झाबुआ 1999 उज्जैन
2000 कोटा (राज.)
2001 बामनिया
2002 कुशलगढ़ (राज.) 2003 संजेली (गुज.)
2004 घोटी (महा.) 2005 नासिक (महा.)
2006 औरंगाबाद (महा.) 2007 इंदौर
2008 दाहोद (गुज.) 2009 करही
2010 धार 2011 ताल
16. एक युग का अंत - महायोगी का महाप्रयाण !
सन् 2011 का ताल चातुर्मास पूर्ण करके महिदपुर
आदि क्षेत्रों में धर्म की पावन गंगा बहाते हए,
अपने अंतिम समय को जानकर अंतिम आराधना करते
हुए, उन्हेल होते हुए आचार्यदेव मालवा की प्राचीन
धर्म नगरी उज्जयिनी पधारे । यहाँ दिनाँक 18 मार्च
2012 चेत्र मास की ग्यारस को प्रातः 8:30 बजे
सभी जीवों से क्षमायाचना कर श्रेष्ठ पादपोपगमन
संथारा अंगीकार किया ।देखते ही देखते कुछ
ही घंटो में 50,000 से भी अधिक श्रद्धालु उज्जैन
पहुँच गए । ......और आखिर शाम को लगभग
5.16 बजे इस युग-प्रधान आचार्य का महाप्रयाण
हो गया । जैन जगत का एक ज्योतिर्धर सूर्य अस्त
हो गया । 19 मार्च को लाखों भक्तों की नम
आँखो के सामने आपके पार्थिव शरीर
को मुखाग्नि दी गई । वास्तव में भगवन् श्रमण संघ
के रक्षक एक "युगप्रधान आचार्य " थे । वर्तमान
युग में आप जैसे उच्च क्रियावान होते हुऐ
भी सरलता गुण से सम्पन्न साधु मिलना अत्यन्त
दुष्कर हैं । आपने कभी किसी को "अपना भक्त "
नहीं बनाया किंतु आपके पास जो भी आया उसे
"भगवान का (सच्चा जैनी) " बनाया । ऐसे
युगप्रधान आचार्य के श्री चरणों में -
श्रद्धा ! भक्ति ! समर्पण ! नमन् !!!!
जिनशासन गौरव युग प्रधान आचार्य प्रवर पूज्य
श्रीमद् उमेशमुनिजी म.सा. ''अणु'' । वह एसे
महाविभूति की व्यक्ति वाचक संज्ञा है,जो जाति-
सम्प्रदाय-समाज वाचक न रहकर विश्ववाचक
पहचान बन चुकी है - अपनी संयम-साधना से ,ज्ञान-
आराधना से, और शासन प्रभावना से । सरलता -
सहजता - ममप्रता का त्रिवेणी संगम पूज्य श्री में
देखा जा सकता हैं । भगवद् स्वरूप का दर्शन पूज्य
श्री में किया जा सकता हैं और आस्थायुक्त
अर्चना से मुक्ति का मार्गदर्शन
भी लिया जा सकता हैं।
अनुभूति के स्वरों में एक ही गान।
मेरे तों श्री उमेश - गुरू भगवान ।
वर्तमान के आप ही हो वर्धमान ।
माने है जिन्हें सकल जहान ।
ऐसे पूज्य गुरूवर के लिए कुछ लिखना मानों बरगद
को गमले में सजाना , चिटीं का सागर तैर जाना ,
सूरज को दिपक दिखलाना - असंभव । असीम
को असीम से नापना संभव ही नहीं , फिर
भी नन्हीं भुजाओं से समुद्र की विराटता दिखाने
का बाल - प्रयास किया जा रहा हैं । उस असीम के
लिए असीम श्रद्धा के साथ..........
3 गौरवान्वित बनी जन्म भूमि !
ऋषिप्रधान भारत देश के हृदय स्थान में विराजमान-
मध्यप्रदेश । मध्यप्रदेश का एक विभाग डुंगर
प्रान्त । इसी डुंगर प्रान्त का एक जिला - झाबुआ
। और झाबुआ जिले का एक प्रमुख कस्बा -
थांदला । हां, यह वही थांदला हैं जहाँ से लगभग 22
मुमुक्ष आत्माओं ने जन्म लेकर मोक्ष मार्ग पर
आरोहण किया । यह वही थांदला हैं जहाँ महामहिम
आचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी म.सा. का जन्म
हुआ यह वही थांदला नगरी जिसनें युग प्रधान
आचार्य प्रवर पूज्य श्रीमद् उमेशमुनिजी म.सा.
''अणु'' की जन्मभूमि कहलाने का गौरव प्राप्त
किया ।
मारवाड़ की माटी नागौर से भाग्य - भानु चमक ाने के
लिए घोड़ावत-छजलाणी कुल की परंपरा के दों सगे
भाई श्री कोदाजी और श्री भागचंदजी कुशलगढ़ आए
। संभव हैं थांदला को इस परिवार की परंपरा में जन्में
कुलदीपक के निमित्त से भारत देश में
प्रसिद्धि मिलनी हो तो श्री कोदाजी को थांदला की
धरा अपनी और खींच लाई और उन्होंने थांदला में
व्यवसाय - चातुर्य एवं सद्व्यवहार
द्वारा अच्छी साख जमा ली । धर्मप्रिय
श्री कोदाजी के चार सुपुत्र
क्रमशः श्री दौलतरामजी , श्री टेकचन्दजी ,
श्री फतेहचन्दजी , श्री रूपचन्दजी थे । इनमें से
श्री फतेहचन्दजी एवं श्री कोदाजी के
भ्राता श्री भागचन्दजी की परिवार
परंपरा का कल्याणपुरा में तथा श्री दौलतरामजी एवं
श्री टेकचन्दजी की परिवार परंपरा का थांदला में
निवास हैं ।
ऋषिप्रधान भारत देश के हृदय स्थान में विराजमान-
मध्यप्रदेश । मध्यप्रदेश का एक विभाग डुंगर
प्रान्त । इसी डुंगर प्रान्त का एक जिला - झाबुआ
। और झाबुआ जिले का एक प्रमुख कस्बा -
थांदला । हां, यह वही थांदला हैं जहाँ से लगभग 22
मुमुक्ष आत्माओं ने जन्म लेकर मोक्ष मार्ग पर
आरोहण किया । यह वही थांदला हैं जहाँ महामहिम
आचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी म.सा. का जन्म
हुआ यह वही थांदला नगरी जिसनें युग प्रधान
आचार्य प्रवर पूज्य श्रीमद् उमेशमुनिजी म.सा.
''अणु'' की जन्मभूमि कहलाने का गौरव प्राप्त
किया ।
मारवाड़ की माटी नागौर से भाग्य - भानु चमक ाने के
लिए घोड़ावत-छजलाणी कुल की परंपरा के दों सगे
भाई श्री कोदाजी और श्री भागचंदजी कुशलगढ़ आए
। संभव हैं थांदला को इस परिवार की परंपरा में जन्में
कुलदीपक के निमित्त से भारत देश में
प्रसिद्धि मिलनी हो तो श्री कोदाजी को थांदला की
धरा अपनी और खींच लाई और उन्होंने थांदला में
व्यवसाय - चातुर्य एवं सद्व्यवहार
द्वारा अच्छी साख जमा ली । धर्मप्रिय
श्री कोदाजी के चार सुपुत्र
क्रमशः श्री दौलतरामजी , श्री टेकचन्दजी ,
श्री फतेहचन्दजी , श्री रूपचन्दजी थे । इनमें से
श्री फतेहचन्दजी एवं श्री कोदाजी के
भ्राता श्री भागचन्दजी की परिवार
परंपरा का कल्याणपुरा में तथा श्री दौलतरामजी एवं
श्री टेकचन्दजी की परिवार परंपरा का थांदला में
निवास हैं ।
4 धर्मनिष्ठ परिवार जिससे पाए सुसंस्कार !
थांदला में श्री दौलतराम जी दौलाबा के नाम से
पहचाने जाते थे । दौलाबा की पेढ़ी धार्मिक
पेढ़ी कहलाती थी । दौलाबा के एक पुत्र एवं
दो पुत्रियाँ थी । पुत्र श्री रिखबचन्दजी सा. शांत -
स्वभावी , धार्मिक प्रवृत्ति के थे । वे कुशल
व्यारारी तो थे ही , व्यवहार कुशल भी थे ।
धार्मिक सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी थे ।
पिता पुत्र दोनो मिलकर नितिपूर्वक व्यवहार करते
थे । गरीबो का विशेष ध्यान रखते थे । ऐसे
धर्मनिष्ठ परिवार में लीमड़ी गुजरात के झामर
परिवार की सुपुत्री नानीबाई का विवाह हुआ
श्री रिखबचन्दजी के साथ । सुसंस्कारों से परिपूर्ण
सुश्राविका श्रीमती नानीबाई ने नव रत्नो के समान
नव संतानों को जन्म दिया और उन्ही में जन - जन
की आस्था के केन्द्र आचार्य
श्री उमेशमुनिजी म.सा. का स्थान मध्य में रहा ।
थांदला में श्री दौलतराम जी दौलाबा के नाम से
पहचाने जाते थे । दौलाबा की पेढ़ी धार्मिक
पेढ़ी कहलाती थी । दौलाबा के एक पुत्र एवं
दो पुत्रियाँ थी । पुत्र श्री रिखबचन्दजी सा. शांत -
स्वभावी , धार्मिक प्रवृत्ति के थे । वे कुशल
व्यारारी तो थे ही , व्यवहार कुशल भी थे ।
धार्मिक सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी थे ।
पिता पुत्र दोनो मिलकर नितिपूर्वक व्यवहार करते
थे । गरीबो का विशेष ध्यान रखते थे । ऐसे
धर्मनिष्ठ परिवार में लीमड़ी गुजरात के झामर
परिवार की सुपुत्री नानीबाई का विवाह हुआ
श्री रिखबचन्दजी के साथ । सुसंस्कारों से परिपूर्ण
सुश्राविका श्रीमती नानीबाई ने नव रत्नो के समान
नव संतानों को जन्म दिया और उन्ही में जन - जन
की आस्था के केन्द्र आचार्य
श्री उमेशमुनिजी म.सा. का स्थान मध्य में रहा ।
5 माता पिता हुए निहाल - घर में जन्में उत्सवलाल !
हुआँ यू कि रात्री में प्रभु स्मरण कर माता नानीबाई
निंद्राधीन हुई । सर्वत्र नीरव स्तब्धता ,
रात्री का अंतीम प्रहर - अर्ध्दनिंद्रित अवस्था में
माता ने स्वप्न देखा । स्वप्न में एक सिंह नें
माता के मुखमंडल में प्रवेश किया । अलौकिक
अनुभूति से माँ शय्या से उठ बैठी , शुभ संकेत से
मन प्रसन्न हो उठा और शेष रात्री धर्म
आराधना में व्यतीत की । जो जीव संस्कार बल
का सामर्थ्य लेकर जन्म धारण करता हैं ,
तो उसका सम्मान दशो - दिशाएं करती हैं ।
सभी को इंतजार था , उस शुभ घड़ी का । और वह
दिवस भी आया - फागण वदी 30 , सोमवार, संवत्
1988, 7 मार्च 1932 अमावस की गहन रात्री में
जन्म नहीं , अवतरण हुआ देवलोक से एक दिव्य
आत्मा का - सदा सदा के लिए मिथ्यात् व
का अंधकार मिटाने के लिए - शास्वत सम्यक्त्व
का प्रकाश पाने के लिए ।
थांदला नगरी में प्रसंग था , प्रवर्तिनी पूज्य
श्री टीबूजी म.सा. के सानिध्य में
श्री संपतकंवरजी म.सा. के संयम ग्रहण करने का ।
महोत्सव था दीक्षा का । अतः बालक का नाम
भी उत्सवलाल रखा गया , जो बोलचाल की भाषा में
ओच्छब हो गया ।
हुआँ यू कि रात्री में प्रभु स्मरण कर माता नानीबाई
निंद्राधीन हुई । सर्वत्र नीरव स्तब्धता ,
रात्री का अंतीम प्रहर - अर्ध्दनिंद्रित अवस्था में
माता ने स्वप्न देखा । स्वप्न में एक सिंह नें
माता के मुखमंडल में प्रवेश किया । अलौकिक
अनुभूति से माँ शय्या से उठ बैठी , शुभ संकेत से
मन प्रसन्न हो उठा और शेष रात्री धर्म
आराधना में व्यतीत की । जो जीव संस्कार बल
का सामर्थ्य लेकर जन्म धारण करता हैं ,
तो उसका सम्मान दशो - दिशाएं करती हैं ।
सभी को इंतजार था , उस शुभ घड़ी का । और वह
दिवस भी आया - फागण वदी 30 , सोमवार, संवत्
1988, 7 मार्च 1932 अमावस की गहन रात्री में
जन्म नहीं , अवतरण हुआ देवलोक से एक दिव्य
आत्मा का - सदा सदा के लिए मिथ्यात् व
का अंधकार मिटाने के लिए - शास्वत सम्यक्त्व
का प्रकाश पाने के लिए ।
थांदला नगरी में प्रसंग था , प्रवर्तिनी पूज्य
श्री टीबूजी म.सा. के सानिध्य में
श्री संपतकंवरजी म.सा. के संयम ग्रहण करने का ।
महोत्सव था दीक्षा का । अतः बालक का नाम
भी उत्सवलाल रखा गया , जो बोलचाल की भाषा में
ओच्छब हो गया ।
6 नाजों से पाला - जमाने से निराला !
माता-पिता एवं परिजनों द्वारा संस्कारों को प्राप्त
करते करते बालक ओच्छब का प्रवेश धर्मदास
विद्यालय में 7 वर्ष की उम्र में हुआ ।
वहाँ आपश्री का नाम ओच्छब से श्री उमेशचन्द्र
हो गया । जो उम्र खेलने - कूदने , रेत के घरौंदे और
मिट्टी के टीले बनाने की होती हैं , उसी उम्र में आप
गंभीरता से अध्ययन करते रहे । पहली कक्षा में
ही कालिदासजी का बाल रघुवंश पढ़ लिया ।
छठी कक्षा में कविता बनाना भी प्रारंभ हो गया ।
अन्य साहित्य के साथ धार्मिक साहित्य
का भी वाचन आप करते रहे और पढ़ते पढ़ते , संत-
साध्वियों से कहानियाँ सुनते सुनते , सुंदर अक्षरों में
व्याख्यान आदि के पत्र लिखते लिखते संसार
की असारता का बोध कब हुआ - यह
आपको भी पता नहीं चला ।
7 प्रगट हुआ वेराग - अंतर्मन जाग जाग !
डूंगर प्रान्त में विचरण करते हुए कविवर्य पू.
श्री सूर्यमुनिजी म.सा. का थांदला में पदार्पण हुआ
- प्रथम बार आपश्री ने पूज्य गुरूदेव के दर्शन किए
और आपको गुरूदेव की वह छवि संसार तरणी - भव
दुःखहरणी सी लगी । मन से समर्पण
तो हो गया और इस दिशा में पुरूषार्थ भी होने
लगा । पू. गुरूदेव श्री के पश्चात् धार्मिक
पाठशाला में एकाध माह में ही अर्थ सहित
प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कर लिया और पूज्य
श्री का संवत् 1999 का वर्षावास पेटलावद
था वहाँ जाकर सुना भी दिया । अब आपके हर कार्य
मे जीवन के अंधकार से आत्मा की उज्ज्वलता में
प्रवेश करने का निश्चय पूर्णतः सावधान था । सच
में , किसी धर्म प्रवर्तक की चर्चा जब
धरा करती हैं तो वह सिर्फ उसमें रहे हुए संस्कार -
बल का ही प्रकटीकरण होता हैं । और एसे ही शुभ
संस्कारों के कारण वैराग्य के भाव आप श्री की हर
क्रिया में व्यक्त हो रहे थे ।
8 वैराग्य भावो के संग - श्रद्धा और आचरण
का रंग !
समय अपनी गति से बढ़ रहा था , धर्म
श्रद्धा का रंग चढ़ रहा था और जीवन में घटित
घटनाओं का निमित्त एक इतिहास गढ़ रहा था ।
गृहवास में रहते हुए कभी लोगस्स सुनाकर
किसी महिला का जहर उतारा ,
तो कभी देवी शक्ति के साथ निर्भिकता से
चर्चा की । देव गुरू धर्म के प्रति श्रद्धा तो दृढ़
थी ही , अब आचरण की दिशा में भी चरण बढ़ते गए
। पूज्य गुरूदेव के प्रति आपने अपने
भावों को व्यक्त किया । आंतरिक आशिर्वाद
भी प्राप्त हुए । फिर भी पुरूषार्थ
तो आपको ही करना था । भावना दृढ़ थी ।
अतः दीक्षा हेतु आवश्यक क्रियाएँ भी समझी ।
17 वर्ष की उम्र में लोच करना भी सिखा । बचपन
में पराठे पसंद थे , लेकिन " चाय तो छुटे नी , ने कई
दीक्षा लेगा " माताजी के इन शब्दों में
ही अप्रत्यक्ष प्रेरणा रही थी कि किसी भी चीज
का आदि बनने वाला संयम का पालन कैसे कर
सकता हैं , अतः उसी समय संकल्प बद्ध हो गए -
कि अब चाय नहीं पीना । सच में दृढ़ संकल्पी के लिए
असंभव कुछ भी नहीं होता ।
9 चैन की सांस - शिवरमणी की आस !
संसार के बंधनों में बांधकर माता - पिता अपने
कर्तव्यों से मुक्त होना चाहते हैं । इसी में वे जीवन
की इति श्री मान लेते हैं । ऐसा ही समझ रहे थे
पिता श्री रिखबजी । आपकी धार्मिक भावनाओं से
तो वे अनजान नहीं थे , लेकिन वे नहीं चाहते थे
कि हमारी आकांक्षाओं का शिखर साधु बनकर
आध्यात्म की राह पर चले । वे जिस मार्ग
को कंटकाकीर्ण मान रहे थे , उसी मार्ग
को फूलों सा कोमल मानकर चलने के लिए आप
संकल्प बद्ध थे । परन्तु बड़ों के समक्ष कुछ न कह
पाने की झिझक अवरोधक बन गयी ओर
परिजनों द्वारा आपकी सगाई तेरह वर्ष की उम्र में
थांदला में कर दी गयी । रकम चढाने का मुहूर्त
भी नियत हो गया और सगाई रस्म के पहले दिन घर
में तो चक्की बनाने के लिए
मुठड़िया तली जा रही थी और आप खिसक
गए........... । गाँव बाहर एक गढ्ढे में संसार के
गढ्ढे से बाहर निकलने की सोच में देर रात तक बैठे
रहे - परिजन ढूंढ़ते ढूंढते आए और घर ले गए ।
परिजनों ने आपके मन की थाह ली - आपका विरक्त
मन तैयार नहीं हुआ , अतः सगाई छोड़ दी गयी ।
आपने चैन की सांस ली - शिवरमणी की आस में ।
10 मोह हारा- पुरूषार्थ जीता !
सगाई के बंधनों से मुक्त होने के बाद विशेष रूप से
आपने स्वयं को एकांत आत्मचिंतन और विशेष
आराधना से स्वयं को जोड़ लिया । परिजनों की मोह
ममता की लहरे आपके शांत मानसरोवर को विचलित
नहीं कर पायी । अब तो एक ही धुन बस , मुझे
तो दीक्षा ही लेना हैं । बड़ो की मर्यादा का ख्याल
था - संकोच था ही , अतः अपनी भावनाओं
की अभिव्यक्ति पत्रों के माध्यम से होती थी ।
परिजनो का प्रयास चल रहा था कि आपका वैराग्य
कैसे उतरे पर वैराग्य
बाहरी चोला नहीं जो उतारा जाय । आपको चार माह
के लिए बंबई में भी रखा गया , वहाँ से
भी आपश्री ने लिखा मुझे बंबई क्या विलायत
भी भेज दो , तो भी में अपने निर्णय पर अटल
रहूँगा । पुनः थांदला आए । मामाजी के समक्ष अपने
भाव रखे माताजी के सहयोग से इन्दौर पू. गुरूदेव
श्री के सानिध्य में अध्ययनार्थ पहुँच गए । अब
वहाँ आप वैरागी उमेशचन्द्रजी बन गए और साक्षात
गुरू चरणों में रहकर वैराग्य भावों को पुष्ट करने लगे
। वहाँ आपश्री ने संस्कृत में प्रथमा ,
कलकत्ता की काव्य - मध्यमा तथा प्रयाग
की साहित्य रत्न की परिक्षाएँ उत्तीर्ण की ।
नवकारसी , पाक्षिक उपवास भी प्रारंभ किए और
5-6 वर्षों की कड़ी परिक्षा के बाद
परिजनों को दीक्षा हेतु आज्ञा प्रदान करनी पड़ी ।
चैत्र सुदी तेरस महावीर जयंति , संवत् 2011
15/4/1954 का दिन संयम आरोहण
की प्रतिज्ञा हेतु तय हुआ । कई महान संत
संतियों के सुसानिध्य में मालव केशरी पूज्य
श्री सौभाग्यमलजी म.सा. ने रिखबचन्दजी की पंचम
संतान को संयम रत्न प्रदान कर कविवर्य पूज्यपाद
श्री सूर्यमनिजी म.सा. के पंचम शिष्य के रूप में
पंचम पद प्रदान किया ।
मानव से महामानव बनने वाले इस संयमी साधक के
लिए मानवों ने ही नहीं , देवों ने भी मंगल कामनाओं
की बरखा की और आपका प्रसन्न मन गाने लगा -
आज मैं लक्ष्य़ पाया जिंदगी का ध्रुव
सितारा ..........
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11 हरिसो गुरू आणाए - जगावेइ मणेबलं !
अच्छा गुरूकुल मिलता है - पुण्य के आधार से और
फलता हे योग्यता के आधार से । ज्योतिष शास्त्र
के अनुसार जिसकी कुंडली में गुरू-ग्रह केन्द्र में हो ,
उसे अन्य ग्रहों द्वारा होने वाले दूषण व्यथित
नहीं करते, उसी प्रकार जिसके ह्रदय के केन्द्र
स्थान में गुरू हो उसका जीवन भी निर्बाध रूप से
उन्नति की ओर अग्रसर रहता है ।
जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा , गुरू चरणों में समर्पण
और प्रसन्नता पूर्वक जिनेश्वर भगवान
की आज्ञा का पालन - इन तीन तत्वों ने मिलकर
आप श्री में उत्तम शिष्यत्व का निर्माण किया ।
पूज्यपाद गुरूदेव श्री ने भी एक समर्थ शिष्य
को पंचम पद की उँचाईयों पर पहुँचाने में यथाशक्य
सहयोग दिया । विनम्रता के साथ आप
भी सफलता की डगर पर बड़ते रहे ।
दोपहर में आड़ा आसन नहीं करना , प्रातः तीन-साढ़े
तीन बजे उठकर साधना में प्रवृत्त होना , प्रतिदिन
दो हजार गाथा प्रमाण स्वाध्याय करना , प्रतिवर्ष
प्रायश्चित तप पचौला, छः, आठ आदि करना ।
पाक्षिक उपवास, अन्न-पानी की मर्यादा, पद्मासन
में प्रतिदिन एक घंटे तक 40 ल ोगस्स का ध्यान,
बरसों से एकान्तर एक समय अन्न ग्रहण,
दीक्षा ली तब से प्रथम प्रहर में अन्न नहीं लेना -
आदि कई नियमों का आपने अपने संयम काल में
यथावत् पालन किया । सच में, आपने ही तो लिखा हैं
----
हसियो गुरू - आणाए - जगावेइ मणेबलं । --
प्रसन्नता पूर्वक गुरू आज्ञा का पालन मनोबल
को जाग्रत करता है ।
12 संयम यात्रा के साथ - साथ साहित्य यात्रा !
दीक्षा के पूर्व तो अग्रज श्री रमेशजी के साहित्य-
संग्रह से आप पढ़ते रहे । कविता बनाने
की प्राथमिक शिक्षा भी उन्हीं से प्राप्त हुई । फिर
बंबई - इंदौर के ग्रन्थालयों से भी अध्ययन किया ।
सन् 1947 से आप श्री का धार्मिक-लेखन प्रारंभ
हुआ , जो सम्यग्दर्शन पत्रिका के माध्यम से
प्रकाशित होता रहा । वैराग्य काल में आप श्री ने
प्राकृत भाषा का भी अध्ययन किया ।
दीक्षा लेने के पश्चात् प्रथम वर्षावास में ही आप
श्री ने सूत्रकृतांग जैसे दार्शनिक आगम का अनुवाद
लिखा । तत्पश्चात् भी यह क्रम बना रहा ।
फलस्वरूप आप श्री की लगभग 50 से भी अधिक
किताबे व्याख्यान - संग्रह, अनुप्रेक्षा-ग्रन्थ,
जीवन चरित्र, तत्व चिंतन, उपन्यास और कविता-
स्तुति संग्रह इस प्रकार विविध विधाओं में
प्रकाशित है, तो लगभग पचासौं रचनाएँ अप्रकाशित
भी हैं । आपने दिवाकर-देन, सूर्य-साहित्य भाग 1
से 4 का संपादन भी किया है, तो आगमों का अनुवाद
भी किया है । विवेचनात्मक ग्रन्थ भी लिखे हैं
तो प्राकृत भाषा में स्वयं रचित एवं विवेचित मोक्ष
- पुरूषार्थ, नमोक्कार अणुप्पेहा,
सामण्णसढिड्म्मो आदि मौलिक रचनाएँ
अपना विशिष्ट महत्व रखती है ।
इनमें प्रमुख मोक्ष-पुरूषार्थ ऐसा अनमोल ग्रन्थ है,
जिसकी 2517प्राकृत गाथाओं की रचना आपने पहले
ही कर ली और विवेचन अनुवाद बाद में लिखा । यह
ऐसा अनमोल ग्रन्थ है, जो भव्य आत्माओं
को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में अत्यंत
उपयुक्त है । धर्मदास सम्प्रदाय के
गौरवशाली ईतिहास पर आप द्वारा लिखित पुस्तक "
श्रीमद् धर्मदासजी म. और उनकी मालव शिष्य
परम्परा " विशेष रूप से पठनीय हैं ।
आपश्री का यह साहित्य के क्षेत्र में योगदान
युगों-युगों तक साधकों के लिए मार्गदर्शन
करता रहेगा । आपकी प्रत्यक्ष
उपस्थिति का अनुभव कराएगा और चतुर्विध-संघ
सदैव आपके प्रति कृतज्ञ रहेगा ।
13 लघुता में प्रभुता -- प्रभुता में लघुता !
गृहस्थावस्था में एक बार गाँधीजी की आत्मकथा में
आपने पढ़ा कि सत्य के अन्वेषक को रजकण से
भी छोटा बनना पड ़ता है । उस समय उम्र थी 17
वर्ष की आपने स्वयं के लिए चिंतन किया कि मुझे
परम सत्य की खोज करना है , अतः मुझे भी लघुतम
होना ही होगा । तभी से आपना अपना उपनाम "अणु"
रख लिया । आपकी रचनाए अणु जैन के नाम से
भी प्रकाशित होने लगी । वास्तव में , स्वयं
को छोटा मानने वाला ही महान होता हैं ।
जब प्रवर्तक पू. गुरूदेव श्री सूर्य मुनि जी म.सा.
और मालव केसरी जी म.सा.
दोनों महाविभूतियों का अल्प अन्तराल में
ही देवलोकगमन हो गया तब संघ के नेतृत्व
का दायित्व आपको सौंपा गया । मन तो तब
भी नहीं था पर पू. गरूभ्राता के कहने से मौन रहे ।
जब सन् 1987 में पूना सम्मेलन में श्रमण संघ के
भावी आचार्य पद हेतु निर्विरोध आपसे निवेदन
किया गया , उस समय भी आपने सविनय मना कर
दिया और जब सन् 2003 में श्रमण संघ में उथल-
पुथल हुई , 'आप मानो या ना मानो , हमनें तो आप
श्री को आचार्य मान ही लिया हैं ' ऐसा वरिष्ठ
संतो द्वारा आपको कहे जाने पर भी आपने सुझबुझ
के साथ उपाय भी सुझाये । लेकिन होनहार बलवान
थी । इस कारण से कइ प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रतिकूल
परिस्थितियाँ भी निर्मित हुई और ऐसे माहोल में
भी आपने अपने आप को संयत ही रखा। प्रशंसा में
फूले नही , निंदा में आत्मभान भूले नहीं । पद
दिया तो भी स्वयं को चौकीदार ही माना।
न ज्ञान का गर्व , न क्रिया का अहं , न पद
का मद । सदा समभाव में लीन , आत्म लक्ष्य में
पीन , ध्येय का ही चिंतन रात- दिन । चाहे
छोटा हो या बड़ा - सभी पर समत्व-युक्त
कृपा की अमि वर्षा , सभी के हित
की कामना ,सभी के सुख हेतु सद् भावना - ऐसी कई
विशेषताओं के होते हुए भी कोइ स्तुति करे ,
तो 'मेरी नहीं - तीर्थंकर भगवान की स्तुति करो । '
ऐसी सद्प्रेरणा देते थे ।
14 आपश्री की शिष्य-सम्पदा !
१.आगम विशारद बुध्द पुत्र वर्तमान प्रवर्तक
शास्त्रज्ञ पं रत्न पूज्य श्री जिनेन्द्र
मुनि जी म.सा. , २.सरल स्वभावी पूज्य
श्री वर्धमान मुनि जी म.सा. , ३.अणु वत्स पं पूज्य
श्री संयतमुनि जी म.सा. , ४.संघहित चिंतक
तत्वज्ञ पूज्य श्री धर्मेन्द्र मुनि जी म.सा. ,
५.वयोवृद्ध पूज्य श्री किशन मुनि जी म.सा. ,
६.युवाप्रेरक पूज्य श्री संदीप मुनि जी म.सा. ,
७.स्वाध्याय रसिक पूज्य श्री प्रभास
मुनि जी म.सा. , ८.तप प्रेरक पूज्य श्री दिलीप
मुनि जी म.सा. , ९.पूज्य श्री आदिश
मुनि जी म.सा. , १०.पूज्य श्री हेमन्त
मुनि जी म.सा. , ११.पूज्य श्री पुखराज
मुनि जी म.सा. , १२.पूज्य श्री अभय
मुनि जी म.सा. , १ ३.पूज्य श्री अतिशय
मुनि जी म.सा. , १४.पूज्य श्री जयन्त
मुनि जी म.सा. , १५.पूज्य श्री गिरिश
मुनि जी म.सा. , १६.पूज्य
श्री रवि मुनि जी म.सा. , १७.पूज्य श्री आदित्य
मुनि जी म.सा. गुलदस्ते में सजे विविध
पुष्पों की तरह विविधता एवं गुण - सुरभि से युक्त हैं
। इनमें कोई शास्त्रज्ञ हैं , तो कोई वक्ता-लेखक-
चिंतक हैं । कोई तपस्वी हैं, कोई एकांत-प्रिय हैं,
कोई मौन साधक हैं । दीक्षा पूर्व लगभग
सभी उच्चशिक्षण प्राप्त हैं एवं आत्मलक्ष्यपूर्वक
आपश्री के पावन सानिध्य में आए हैं और
आराधना में स्थित हैं ।
15 धन्य हुए चातुर्मास स्थल !
सन् (ई.) स्थान सन् (ई.) स्थान
1954 सैलाना 1955 माटुंगा (बम्बई)
1956 कांदेवाड़ी(बम्बई) 1957 इंदौर
1958 थांदला 1959 सैलाना
1960 उज्जैन 1961 कोटा (राज.)
1962 जयपुर(राज.) 1963 दिल्ली (केन्द्र)
1964 बूँदी (राज.) 1965 थांदला
1966 झाबुआ 1967 मेघनगर
1968 बदनावर 1969 सैलाना
1970 शुजालपुर 1971 रतलाम
1972 थांदला 1973 बदनावर
1974 रतलाम 1975 बदनावर
1976 बदनावर 1977 बदनावर
1978 बदनावर 1979 बदनावर
1980 बदनावर 1981 बदनावर
1982 रतलाम 1983 झाबुआ
1984 थांदला 1985 कुशलगढ़ (राज.)
1986 मेघनगर 1987 कोपरगांव (महा.)
1988 घोटी (महा.) 1989 नागदा (धार)
1990 कोद 1991 पेटलावद
1992 खाचरौद 1993 लीमड़ी (गुज.)
1994 रतलाम 1995 बड़वाह
1996 बदनावर 1997 थांदला
1998 झाबुआ 1999 उज्जैन
2000 कोटा (राज.)
2001 बामनिया
2002 कुशलगढ़ (राज.) 2003 संजेली (गुज.)
2004 घोटी (महा.) 2005 नासिक (महा.)
2006 औरंगाबाद (महा.) 2007 इंदौर
2008 दाहोद (गुज.) 2009 करही
2010 धार 2011 ताल
16. एक युग का अंत - महायोगी का महाप्रयाण !
सन् 2011 का ताल चातुर्मास पूर्ण करके महिदपुर
आदि क्षेत्रों में धर्म की पावन गंगा बहाते हए,
अपने अंतिम समय को जानकर अंतिम आराधना करते
हुए, उन्हेल होते हुए आचार्यदेव मालवा की प्राचीन
धर्म नगरी उज्जयिनी पधारे । यहाँ दिनाँक 18 मार्च
2012 चेत्र मास की ग्यारस को प्रातः 8:30 बजे
सभी जीवों से क्षमायाचना कर श्रेष्ठ पादपोपगमन
संथारा अंगीकार किया ।देखते ही देखते कुछ
ही घंटो में 50,000 से भी अधिक श्रद्धालु उज्जैन
पहुँच गए । ......और आखिर शाम को लगभग
5.16 बजे इस युग-प्रधान आचार्य का महाप्रयाण
हो गया । जैन जगत का एक ज्योतिर्धर सूर्य अस्त
हो गया । 19 मार्च को लाखों भक्तों की नम
आँखो के सामने आपके पार्थिव शरीर
को मुखाग्नि दी गई । वास्तव में भगवन् श्रमण संघ
के रक्षक एक "युगप्रधान आचार्य " थे । वर्तमान
युग में आप जैसे उच्च क्रियावान होते हुऐ
भी सरलता गुण से सम्पन्न साधु मिलना अत्यन्त
दुष्कर हैं । आपने कभी किसी को "अपना भक्त "
नहीं बनाया किंतु आपके पास जो भी आया उसे
"भगवान का (सच्चा जैनी) " बनाया । ऐसे
युगप्रधान आचार्य के श्री चरणों में -
श्रद्धा ! भक्ति ! समर्पण ! नमन् !!!!
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