नवपद ओलीजी का दूसरा दिन
*सिद्ध पद की आराधना का दिन*
9 पदों में किसी भी व्यक्ति विशेष को वंदना नही की गयी है।जो जो आत्मा उन उन महान गुणों तक पहुँचे है उन सभी गुणीजनों को एक साथ वंदना की गयी है।।।नमो सिद्धाणं।।

सिद्ध प्रभु का परिचयजिन आत्माओ ने खुद के ऊपर लगे हुए सभी कर्मों का क्षय कर दिया हो। जो संसार के बंधन से मुक्त हो गए है। जो कभी जन्म नही लेंगे। जिनकी कभी मृत्यु नही होगी, जिनका कोई शरीर, मन नही है।उन पवित्र आत्माओं को सिद्ध कहा जाता है।
जिनके सभी काम सिद्ध हो गए है। सिद्ध यानि अपना खुद का स्वरुप प्राप्त करना।सिद्ध पद को प्राप्त करना ही आज के हर भव्य जीव का लक्ष्य है।अरिहंत प्रभु के कुछ कर्म क्षय होना बाकी होता है।आयुष्य का बंधन भी होता है।जबकि सिद्ध प्रभु की कोई बंधन नही होता है।सिद्ध प्रभु के साथ जो आत्मा अपना मन लगा देता है उसका मोक्ष निश्चित हो जाता है।सभी बंधन से रहितसभी सिद्धि को प्राप्त14 राजलोक के मुकुट समान भाग पर रहे हुए है।सामान्य भाषा में कहे तो अपने ऊपर छत्र के समान वो बिराजित है।हमारी आराधना,तपस्या , साधनाआदि का 1 ही लक्ष्य होना चाहिए किमै सिद्ध पद को प्राप्त करूँ।बिना लक्ष्य के कोई भी आराधना सिद्ध पद को प्राप्त नही करा सकती।बिना लक्ष्य की आराधना से पूण्य होगादेवगति मिल सकती हैपर मोक्ष नही मिलता है।मोक्ष में जाकर कुछ करना नही होता।कुछ भी कार्य करना वहां जरुरी है जहा अपूर्णता है।मोक्ष में कोई अपूर्णता नही होतीसंसार में अपना आयुष्य पूरा हुआ कि चलो।मोक्ष में आयुष्य ही नही है।शास्वत काल को स्थिरता वहा होती हैसामान्य नियम-जब कभी इस संसार सागर से 1 आत्मा सिद्ध गति में जाती है तब 1 आत्मा अव्यवहार राशि से निकल कर व्यवहार राशि में आती है।हम भी तभी व्यवहार राशि में आये है जब कोई आत्मा सिद्ध गति में गयी थी।इस लिए उन सिद्ध परमात्मा का हमारे ऊपर बोहत बड़ा उपकार है।ऐसे अनंत उपकारी सिद्ध प्रभु को ह्रदय से वंदनावो ही हमारे आदर्श है।वो ही हमारे तारक है।वो ही हमारे श्रद्धेय है।वो ही हमारे आराध्य है।उनसे ही मेरा नाता है।सच्चा नाता है।अटूट नाता है।उन सिद्ध जीवों ने अपने आठ कर्मो का क्षय किया है।वो ही कार्य मुझे भी करना है।किसी कवि की कल्पना-अरिहंत सिद्ध प्रभु हमसे कहते है -जिस करणी से हम भयेअरिहंत सिद्ध भगवान्।वो ही करनी तू करोहम तुम एक सामानउन सिद्ध प्रभु के 8 गन होते है-वो आठ गुण आठ कर्मो के क्षय से प्रकट होते है
#1 कर्म ज्ञानावरणीय ।उसके क्षय सेअनंत ज्ञान यह गुण प्राप्त होता है।जिस ज्ञान से आत्मा सभी जीवपुद्गल परमाणुसभी पर्यायसभी कालको 1 ही समय में देख सकते है।उनसे छिपा हुआ जगत में कोई कार्य नही होता
#2 कर्म दर्शनावरणीय ।उसके क्षय से अनंत दर्शनयह गुण आत्मा में प्रकट होता हैजो आत्मा का सहज गुण है।जिससे हम सभी पदार्थों का सामान्य ज्ञान प्राप्त करते है।
#3 कर्म वेदनीय।उसके क्षय से आत्मा में अव्याबाध सुखयह गुण प्रकट होता है।प्रकट होना मतलब -सभी गुण आत्मा में उपस्थित है।उन गुणों पर कर्मों का पर्दा आ गया है।जैसे ही वह पर्दा हटता है-क्षय होता है।उसी समय गुण आत्मा में पूर्ण रूप से प्रकट ही जाता है।अव्याबाध सुख से अनंत काल तक उन्हें कोई पीड़ा नही होगी।हम संसार में कितनी साड़ी पीड़ाओं को सहन कर रहे है।
#4 कर्म मोहनीय।उसके क्षय से आतमा में अनंत चारित्र यह गुण प्रकट होता है।जैसे संसार में जीव मिठाई को खाकर खुश होता हैवैसे ही उससे भी ज्यादा सुख की अनुभूति सहजानंद अवस्था में सिद्ध के जीवों को होती है।
#5 कर्म आयुष्य।
उसके क्षय से आत्मा में अक्षय स्थिति ये गुण प्रकट होता हैजिससे जन्म मृत्युबुढ़ापा आदि सभी दुखदायी अवस्था का नाश हो जाता है।संसार में आयुष्य पूरा होते ही निकलना पड़ता है।आयुष्य पूरा होने का भी इन्तजार किया जाता है।मोक्ष में कोई आयुष्य नही है।जिससे वहां कोई दुःख नही है।
#6 नाम कर्म ।
उसके क्षय से अरुपी गुण प्रकट होता है।संसार में शरीर के कारण कोई सुंदर,कोई भद्दा हो सकता है।मगर सिद्ध गति में शरीर ही नही होता।वो उनकी आत्मा निजानंद में रमण करता है।
#7 कर्म गोत्र कर्म।
उसके क्षय से आत्मा में अगुरुलघु गुण प्रकट होता हैजिससे सिद्ध गति में सभी जीव समान हो जाते है।संसार कोई बड़ा कोई छोटाकोई खानदानीकोई फुटपाथी।सिद्ध पद सभी आत्मा को एक समान बना देता है
#8 कर्म अंतराय
उसके क्षय से आत्मा में अनंतवीर्य गुण प्रकट होता है।जिसके द्वारा जगत के सभी जीवो को अभयदान दिया जाता है।संसार मेंभोग उपभोग दान लाभआदि सभी कार्य में अंतराय कर्म बाधा बनता है।सिद्ध प्रभु उस कर्म को नष्ट कर देते हैजिससे उन्हें कोई बाधा नही रहती।
ऐसे घाती और अघाती कर्मो का क्षय करने वाले14 राजलोक के अग्र भाग में स्थित स्फटिक की तरह निर्मल है आत्मा जिनकी ऐसे महा उपकारी सिद्ध प्रभु को हमारे शरीर के हर रोम रोम से खून के हर कण कण सेनमन।।।वंदन।।।*परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध कुछ कहा हो तो मिच्छामि दुक्कडं।।*
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