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सोलह सिद्धियों की संक्षिप्त जानकारी

 💯✔ सोलह सिद्धियाँ



🌸1. वाक् सिद्धि : - 

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं.

🌸 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:-

 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.

🌸 3. प्रज्ञा सिद्धि : -

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें.

🌸 4. दूरश्रवण सिद्धि :-

 इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता.

🌸 5. जलगमन सिद्धि:-

 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो.

🌸 6. वायुगमन  सिद्धि :-

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं.

🌸 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-

 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं.

🌸 8. विषोका सिद्धि :-

 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं.

🌸 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-

 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं.

🌸10. कायाकल्प सिद्धि:-

 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं.

🌸11. सम्मोहन सिद्धि :-

 सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं.

🌸 12. गुरुत्व सिद्धि:-

 गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं.

🌸 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-

 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की.

🌸 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-

  जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं.

 🌸15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-

 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं.

🌸16. अनुर्मि सिद्धि:-

 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो.

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💯✔ अलग_अलग_धर्मों_के_अलग_अलग_महामंत्र_हैं,मंत्र क्या करता है और शुरुआती साधना के लिए योग्य महामंत्र कैसे चुने ?

दो प्रकार की यात्रा

1-साधक दो प्रकार की यात्राएं कर सकता है। एक यात्रा है शक्ति की और दूसरी यात्रा है शांति की। शक्ति की यात्रा सत्य की यात्रा नहीं है, शक्ति की यात्रा तो अहंकार की ही यात्रा है। फिर शक्ति धन से मिलती हो, पद से मिलती हो या मंत्र से। तुम शक्ति चाहते हो, तो सत्य नहीं चाहते हो। तुम्हारे द्वारा अर्जित की गई शक्ति शरीर की हो, मन की हो, या तथाकथित अध्यात्म
की हो, तुम्हें मजबूत करेगी।तुम जितने मजबूत हो, परमात्मा से उतने ही दूर हो। तुम्हारी शक्ति परमात्मा के समक्ष तुम्हारे अहंकार की घोषणा है।

2-तुम्हारी शक्ति ही तुम्हारे लिए बाधा बनेगी। तुम्हारी शक्ति ही, वास्तविक अर्थों में, परमात्मा के समक्ष तुम्हारी निर्बलता है। तो जितने तुम शक्तिशाली बनोगे अपनी आंखों में, उतने ही परमात्मा के द्वार पर निर्बल होते जाओगे। इसलिए शक्ति की खोज वास्तविक साधक की खोज नहीं। लेकिन साधक उस दिशा में जाता है। क्योंकि हम जो संसार में खोजते हैं, वही हम परमात्मा में भी खोजते हैं। जो हमें यहां नहीं मिला, उसे ही हम वहां पा लेना चाहते हैं।

3-तो हमारे संसार और हमारे मोक्ष में एक सातत्य है, एक कंटिन्युटी है। बाजार में खोजा जिसे, वह नहीं मिला, उसे हम मंदिर में खोजते हैं। लेकिन खोज वही है। खोज करने वाला जरा भी बदला नहीं है। एक जगह असफल हुए, तो दूसरी जगह सफलता की आकांक्षा जमा लेते हैं।
लेकिन तुम शक्तिशाली होना क्यों चाहते हो ? तुम होना चाहते हो, यही तुम्हारा दुख है। तुम मिटोगे तो आनन्द घटेगा, तुम्हारी अनुपस्थिति में अमृत की वर्षा होगी , तुम्हारे रहते यह होने वाला नहीं है।
मंत्र_क्या_करता_है ?
 
मंत्र शक्तिदायी है  तो मंत्र से निश्चित शक्ति मिलती है।मंत्र मन को एकाग्र करता है। तुम्हारी सारी बिखरी हुई मन की किरणें इकट्ठी हो जाती हैं। फिर वह मंत्र कोई भी हो—राम का नाम हो, नमोकार हो, ऊँ मणि पद्मो हुम् हो, अल्लाहो अकबर हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम अपना खुद का मंत्र बना ले सकते हो।मंत्र का प्रयोजन न शब्दों से है, न अर्थ से। मंत्र का प्रयोजन मन को एकाग्र करने से है। इसलिए जब तुम मंत्र की रटन करते हो, तब तुम्हारे  
सारे विचारों की शक्ति विचारों से हटकर मंत्र में प्रवाहित होने लगती है। चित्त में मंत्र ही रह जाता है। और भीतर तुम्हारे जितने ऊर्जा के द्वार हैं, उनके बहाव की ओर कोई दिशा नहीं बचती।

2-जब तुम विचार करते हो, तो तुम्हारी शक्ति अनंत-अनंत धाराओं में बह रही है। एक विचार पश्चिम जा रहा है, एक पूरब जा रहा है, एक दक्षिण जा रहा है, एक उत्तर जा रहा है। तुम बहुत तरफ बह रहे हो, जब तुम विचार कर रहे हो। इकट्ठे नहीं हो, बंटे हो, विभाजित हो। जब तुम मंत्र का जाप कर रहे हो, तब सारी ऊर्जा एक दिशा में प्रवाहित होने लगती है।जैसे हम सूरज की किरणों को एक कांच के लेंस से इकट्ठा कर लें, तो आग पैदा हो जाती है। सूरज की किरणों में आग तो छिपी है, लेकिन पृथक-पृथक किरणों से ज्यादा से ज्यादा गर्मी पैदा होगी। इकट्ठी हो जाएं, तो आग पैदा हो जाती है। ऐसे ही तुम्हारे मन में भी बड़ी आग छिपी है, अलग-अलग सिर्फ उष्णता रहती है। मंत्र उन्हें इकट्ठा करने का उपाय है। इकट्ठे होते   ही बड़ी गर्मी, बड़ी ऊर्जा पैदा होती है। 

3-और अगर तुम सतत मंत्र का प्रयोग करते रहो, तो तुम्हारे जीवन में अनेक शक्ति की घटनाएँ घटनी शुरू हो जाएंगी, जो तुम्हारे अहंकार को बड़ा रस देंगी। तुम जो कहोगे, वह सच होने लगेगा; तुम जो बोल दोगे, वैसा हो जाएगा; तुम अभिशाप दे दोगे, तो फलित हो जाएगा; तुम वरदान दे दोगे, तो पूरा हो जाएगा। क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा इतनी इकट्ठी हो गई है कि तुम्हारे शब्द अब सार्थक होने लगेंगे। 

4-उनकी सार्थकता का कारण यही है कि जब कोई व्यक्ति इकट्ठी ऊर्जा से कुछ कहता है, तो वह दूसरे के अचेतक तक प्रवेश कर जाता है, उसका तीर सीधा दूसरे के हृदय में चला जाता है। और दूसरे के हृदय में कोई भी बात पहुंच जाए, तो उसके परिणाम शुरू हो जाते हैं। अगर तुमने किसी व्यक्ति को कह दिया कल सुबह तुम बीमार पड़ जाओगे, अगर इस कहते क्षण में, यह तुमने जो कहा है, मंत्र की तरह तुम्हारे भीतर रहा हो ; कोई दूसरा विचार विघ्न-बाधा डालने को न हो ; और तुम्हारा पूरा चित्त इसमें प्रवाहित हुआ हो, तत्क्षण तुमने दूसरे के हृदय को घाव से भर दिया। 

5-अब यह आदमी रात भर सो न सकेगा। इसने तुम्हारी आंखें देखीं, तुम्हारा वक्तव्य सुना, तुम्हारा ढंग देखा और इसके मन पर यह गहरी छाप पड़ गई कि तुमने जो कहा है, उससे बचना मुश्किल है। इसका मन भी अब इसी मंत्र के आस-पास घूमेगा। यह रात सपने में भी तुम्हें देखेगा, रात सपने में भी इसे यही वचन सुनाई पड़ेगा। यह कई बार मन में कहेगा, इससे कुछ होने वाला नहीं, डरो मत, भय मत करो। लेकिन भीतर से कोई इसे फिर भी भयभीत किए जाएगा। चाहे वह कहे कि डरो मत, चाहे यह डरे, दोनों हालात में यह तुम्हारे मंत्र को दोहरा रहा है। सुबह होते-होते यह बीमार पड़ जाएगा। 

6-यह बीमारी आधी तुमने पैदा की ,आधी इसने पैदा की। और ठीक ऐसा ही जीवन के बहुत अंगों में कर सकते हो। और एक बार तुम्हारा वचन सार्थक होने लगे, तो तुम्हारा आत्माविश्वास बढ़ेगा, तुम और बलशाली होने लगोगे। जितना तुम्हारा वचन सही होंगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि मैं कुछ दिव्य शक्ति, कोई सिद्धि से भरा हुआ हूं। यह भरोसा तुम्हारे मंत्र को मजबूत करेगा।तुम धीरे-धीरे अनेक शक्तियों का अनुभव करने लगोगे।

7-यह जो शक्तियों का अनुभव है, इन्हें योग ने सिद्धियां कहा है। ये सिद्धियां परमात्मा के मार्ग पर सबसे बड़ी बाधाएं हैं। पतंजलि ने योग-सूत्रों में इनका उल्लेख किया है, ताकि तुम इनसे सावधान रहो। इनकी तरफ जाना नहीं। जा चुके हो, तो वापस लौट आना है। जितना जल्दी लौट आओ, उतना अच्छा है। क्योंकि जितना समय इसमें खोया, वह बिलकुल व्यर्थ ही जाता है। और हर बार जितने आगे तुम इन दिशाओं में जाते हो, उतना लौटना मुश्किल होने लगता है। 

8-वास्तव में, संसार शक्ति की खोज है, सिद्धि की खोज है।और परमात्मा की शांति, शून्यता की खोज है। वहां तुम मिटते हो, वहां तुम धीरे-धीरे लीन होते हो। सिद्धि की खोज में आखिर में तुम बचोगे, परमात्मा बिल्कुल नहीं। शांति की खोज में तुम न बचोगे, अंत में सिर्फ परमात्मा बचेगा। और इन दो में से एक का मिटना जरूरी है। ये दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। परमात्मा और तुम साथ-साथ नहीं हो सकते, तुम्हारा को-एक्झिस्टेंस, तुम्हारा सह-अस्तित्व असंभव है। तब तक तुम हो, तब तक परमात्मा नहीं; जब परमात्मा है, तब तुम नहीं। 

9-तो सिद्धि और शक्ति तो तुम्हें मजबूत करेगी। इसलिए मंत्रों के साधक परम अहंकार से भरे हुए दिखाई पड़ते हैं। धनी का अहंकार उनके सामने कुछ भी नहीं, पद पर बैठे राजनीतिक का अहंकार उनके सामने कुछ भी नहीं। उनका अहंकार बड़ा सूक्ष्म और भीतरी है।
और उसका कारण भी है। क्योंकि धन छीना जा सकता है, चोरी जा सकता है, धन का मूल्य ही क्या है ? पद आज है, कल न हो, राजनीति का भरोसा कितना ? लेकिन मंत्र का भरोसा ज्यादा प्रबल है। चोर छीन नहीं सकते, जनता का लोकमत बदल नहीं सकता। और मंत्र तुम्हारे मन पर ही निर्भर है, किसी और पर नहीं। इसलिए तुम ज्यादा सबल, आत्मनिर्भर, अपने पैरों पर खड़े मालूम पड़ते हो। 

10-साधक अगर सिद्धि की दिशा में चला जाए, तो भटक गया। रस बहुत आएगा, क्योंकि अहंकार को इस तरह की चीजों से रस आता ही है। अगर एक चींटी इस तरफ आ रही है और तुम सिर्फ अपने मनोबल से उसका रास्ता बदल दो, हालांकि इस कृत्य में कोई सार नहीं है,
पर  फिर भी तुम्हें रस आएगा।रूस में एक महिला है, जिस पर बड़े वैज्ञानिक प्रयोग किए जा रहे हैं। वह किसी भी वस्तु को अपने मन से चालित कर देती है। टेबिल रखी है, छह फीट दूर वह खड़ी हो जाए, पंद्रह मिनिट मन को एकाग्र करे, तो वह टेबिल को हिलाना शुरू कर देती है। टेबिल उसकी तरफ सरक सकती है, दूर जा सकती है। और सब तरह की जांच-पड़ताल से सब समझा गया है, कोई धोखाधड़ी नहीं है। 

11-उस महिला को मिलता क्या है ?पंद्रह मिनिट के प्रयोग में दो पौंड वजन खो जाता है । और एक सप्ताह के लिए वह निर्बल हो जाती है। एक सप्ताह बिस्तर से नहीं उठ सकती। दो पौंड वजन शरीर से तत्क्षण कम हो जाता है। क्योंकि जब तुम मन को एकाग्र करके अपनी शक्ति को बाहर फेंकते हो, ‘तब’ तुम्हारे शरीर की उर्जा भी उसमें क्षीण होती है।लेकिन फिर भी वह
महिला बड़ी आनंद ले रही है। उसका सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है इस उपद्रव में। परिवार में डाँवा डोल हो गया, बच्चे की  चिंता करनी मुश्किल, पति की फ़िक्र करनी मुश्किल। घर तो अस्तव्यस्त हो गया है। और यह एक खेल बन गया है, वैज्ञानिक अध्ययन करने आ रहे हैं, और कोई चमत्कार घटित हो रहा है।

12-लेकिन चमत्कार का अर्थ क्या है ? इससे हल भी क्या है ? टेबिल तुम हाथ से हटा सकते थे, जिसमें कि रत्ती भर ताकत लगती है। उसे तुमने मन से हटाया और दो पौंड शरीर की ऊर्जा क्षीण की और सात दिन तक अस्वस्थ रहे !एक दिन रामकृष्ण के पास किसी ने आकर 
कहा कि लोग कहते हैं, आप परमहंस हो, लेकिन कोई ऐसी सिद्धि तो दिखाई नहीं पड़ती। मेरे गुरु हैं, वे पानी पर चलते हैं। रामकृष्ण कहने लगे, मैं दो पैसा देकर नदी पार हो जाता हूं। तो जो काम दो पैसे से हो जाता हो, तुम्हारे गुरु ने कितने वर्षों में यह कला सीखी ? शिष्य ने कहा, कम से कम बीस वर्ष उनको मंत्र की साधना में लगे। तो रामकृष्ण ने कहा कि बड़ी मूढ़ता है कि जो काम दो पैसे में होता हो, उसे बीस वर्ष का जीवन नष्ट करके किया ! आखिर पानी ही पार होते हैं, तो पानी पार होने में ऐसी बात क्या है ? नाव हो, दो पैसे लेती है, न हो तो आदमी तैर कर पार हो जाए। 

13-पर नदी पर चलकर जो आदमी पार होता है, वह बीस वर्ष मेहनत कर सकता है। आप भी कर सकते हैं। नदी पार होना प्रयोजन ही नहीं है। वह पैर से पार होना, पानी पर खड़े होकर पार होना, उससे आपका अहंकार खड़ा हो रहा है। नाव में बैठकर अहंकार खड़ा नहीं हो सकता, तैरने से अहंकार खड़ा नहीं हो सकता। दो पैसे तो खर्च होते हैं। नदी ही पार होती है। यह जो आदमी चलकर नदी पार कर रहा है, पानी की सतह पर चलकर, इसका नदी पार करना तो प्रयोजन ही नहीं है, यह अहंकार को मजबूत कर रहा है। 

14-मंत्र शक्ति स्रोत हैं। और सभी धर्मों ने मंत्र खोज लिए हैं, क्योंकि सभी धर्म शांति की तलाश से शक्ति की तलाश में पतित हो जाते हैं। महावीर तो शांति खोजते हैं, लेकिन जैन को शांति से क्या लेना-देना ? बुद्ध तो शून्यता खोजते हैं, अपने को मिटाते हैं, लेकिन बौद्धों को अपने को मिटाना नहीं, बनाना है, बचाना है, सुरक्षित करना है। जिन व्यक्तियों के आसपास धर्म का जन्म होता है, वे तो शून्यता हो गए होते हैं। जो लोग आसपास इकट्ठे होते हैं, वे शून्य होने के कारण इकट्ठे नहीं होते। उनका रस कुछ और है, विपरीत है। इसलिए धर्म जिनसे जन्म पाता है और जिनके हाथों में पड़ता है, वे हमेशा शत्रु हैं। उन दोनों की आकांक्षाएं बिलकुल भिन्न हैं। इसलिए सभी धर्म पतित हो जाते हैं। 

15-शक्ति की खोज धर्म को संसार का हिस्सा बना देती है। जैन हो, हिंदू हो, बौद्ध हो, इस्लाम हो, कोई भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें बड़ा रस आता है चमत्कार में। और जब तक तुम्हें चमत्कार में रस आता है, तब तक तुम जानना कि अभी तुम्हारी धर्म की जिज्ञासा पैदा नहीं हुई। कोई साधु, कोई संन्यासी, कोई बाबा अगर हाथ से राख ही पैदा कर दे, तो भी तुम
आंदोलित हो जाते हो।राख का करोगे भी क्या ? राख ऐसे ही सड़कों पर ढेर लगी पड़ी है। राख तो तुम घर से ही आग जलाकर पैदा कर लेते ? दो पैसे भी खर्च नहीं होते। लेकिन किसी आदमी ने हाथ से पैदा कर दी, तो तुम बहुत आंदोलित हो, तो तुम बड़े प्रसन्न हो, तो तुम इस आदमी के पीछे चल रहे हो, तो तुम समझदार नहीं हो।
 
16- यह तो तुम भी समझते हो कि राख से क्या होने वाला है ..लेकिन तुम कुछ और देख रहे हो इस राख में। तुम्हें यह आशा बंधी है कि जो आदमी हाथ से राख पैदा कर सकता है, वह हीरे क्यों नहीं पैदा कर सकता ? उसने राख पैदा करके तुम्हारी वासना को प्रज्वलित कर दिया है। और जो आदमी राख पैदा कर सकता है, वह तुम्हारी बीमारी दूर क्यों नहीं कर सकता ? जो आदमी राख पैदा कर सकता है, वह तुम्हें चुनाव में जिता क्यों नहीं सकता ? 
इसलिए दिल्ली में हर राजनीतिज्ञ का गुरु है। कोई महात्मा, कोई बाबा, जो राख पैदा कर रहा है, जो ताबीज दे रहा है।जिनकी भी वासना है, वे चमत्कार पर निर्भर रहेंगे। मुल्क में करोड़पति है, लेकिन हर करोड़पति किसी न कसी बाबा के चरणों में सिर रखता है। करोड़ भला हों उसके पास, लेकिन अभी अरबों की आकांक्षा है। 

17-तुम चमत्कार को नमस्कार करते हो, क्योंकि तुम्हारी वासना है, तुम कुछ पाना चाहते हो। चमत्कारी से भरोसा मिलता है, कि कुछ आशा बंधती है, इससे कुछ होगा। बीमारी है, नौकरी नहीं, व्यवसाय ठीक नहीं चलता है, अदालत में मुकदमा है, हजार उपद्रव हैं आदमी के पास, मुश्किलें हैं, कठिनाइयां हैं, आदमी दुखी है। राख हाथ से गिरती देखकर उसे आशा बंधती है कि अगर बाबा प्रसन्न हों, तो मेरे दुख भी विसर्जित हो सकते हैं। और जैसे राख पैदा हो रही है,
ऐसे ही सुख की वर्षा हो सकती है।आज तक किसी दूसरे की कृपा से सुख की कोई वर्षा नहीं हुई। आज तक कभी किसी दूसरे के द्वारा आनंद का कोई जन्म नहीं हुआ। सदियों का इतिहास इस बात का सबूत है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई भी आनंद न दे सकेगा। लेकिन मन की भ्रांतियां हैं मन सस्ते और सरल रास्ते खोजता है। 

18- तुम्हारी कोई धार्मिक जिज्ञासा है। तुम राख की तलाश में नहीं हो, न नदियों पर पैदल चलने की तुम्हें कोई विक्षिप्तता है। तुम वस्तुतः ही संसार से ऊब गए हो । तुम्हारी ऊब वास्तविक है। तुम्हारे संताप ने उस सीमा को छू लिया है, जहां तुम एक दूसरे ही अध्यात्म लोक में प्रवेश करना चाहते हो। तुम इस सातत्य को तोड़ना चाहते हो, जो अब तक चलता रहा है। तुम इससे छलांग लगा लेना चाहते हो। तुम इसी का सिलसिला आगे जारी रखने को उत्सुक नहीं हो।इसलिए कोई मंत्र तुम्हें देने को नहीं है।क्योंकि मंत्र वहां दिया जाता है , जहां
तुम्हारी खोज किसी ऋद्धि की, किसी सिद्धि की है।   

19- बुद्ध ने कहा है, मन प्याज की गांठ की भांति है। बस, पर्त विचारों की उघाड़ते जाओ, आखिर में मन भी नहीं बचता, जैसे प्याज नहीं बचती । और जब मन बिलकुल नहीं बचता, तब
तुम अपने परिपूर्ण रूप में प्रगट होते हो। तुम कैसे मिटो, यही महामंत्र है। एकाग्रता से तुम सघन होओगे, ध्यान से तुम मिटोगे। एकाग्रता तुम्हारी शक्तियों को एक जगह लगाती है, ध्यान तुम्हारी शक्तियों को परमात्मा में समर्पित करवाता है। तो परमात्मा को एकाग्रता का बिंदु नहीं बनाना है, परमात्मा में समर्पित होना है। मन को एकाग्र नहीं करना है, परमात्मा में मन को खोना है।

20-ये बड़ी भिन्न बाते हैं। विलीन होना, तल्लीन होना है, खो जाना है। ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम्हें तुम्हारा पता न चले। ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम खोजो भी तो अपने को न पा सको। तुम भीतर जाओ तो पाओ कि घर खाली है। तुम दर्पण के सामने खड़े होओ, अपनी आंखों में झांको, तो पता चले की भीतर कोई भी नहीं है। जहां तुम वसर्जित हो गए, वहीं निर्वाण है। 
इसलिए वस्तुतः धर्म ने कोई मंत्र नहीं दिए हैं, पुरोहित ने मंत्र दिए हैं। तीर्थंकर कोई मंत्र नहीं देते, न अवतार मंत्र देते हैं, पुरोहित मंत्र देते हैं। और पुरोहित से धर्म का कोई संबंध नहीं।  क्योंकि पुरोहित धर्म को व्यवसाय के जगत का हिस्सा बना देता है। वह तुम्हारी आकांक्षाओं का सेवक है। तुम जो चाहते हो, वह कहता है हो सकता है। वह तुम्हें आश्वासन देता है। तुम्हारी आशा को जगाए रखता है।

21-और धर्म तो तभी शुरू होगा, जब तुम्हारी सारी आशा गिर जाएगी। जब तुम्हारी निराशा परम होगी। जब आशा की एक किरण भी न बचेगी । क्योंकि एक भी किरण बची, तो तुम संसार में चलते ही रहोगे। अगर जरा सा भी तुम्हें लगा कि कल कुछ हो सकता है, तो तुम कल की प्रतीक्षा करोगे। तुम्हारा विषाद कितना सघन हो जाए कि कल पर से तुम्हारा भरोसा हट जाए। तुम्हारा संताप इतना गहरा हो कि कोई आशा पैदा न हो।जहां आशा नहीं,कल नहीं, 
वहां वासना के खड़े होने की जगह नहीं। क्योंकि  कल, और आने वाला कल, आने वाला जन्म, वहां आशा, वासना खड़ी होती है कल में, आज तो जगह भी नहीं है। समय का विस्तार वासना
को खड़ा करने के लिए जगह बनाता है।इसलिए तुम कल में जीते हो, आज नहीं। फिर तुम चाहो मंत्रों का पाठ करो, चाहे मन्दिरों-मस्जिदों में पूजा करो, प्रार्थना करो। लेकिन तुम्हारी सारी प्रार्थनाएँ तुम्हारी वासनाओं की संततियां हैं। इसलिए सब झूठी हैं। 

22-जो प्रार्थना वासना का अनुषंग है, वह झूठी है। तुम कुछ मांगते हो, इसलिए प्रार्थना करते हो। यह प्रार्थना शब्द ही मांगने से बना है। तुम जाते हो मंदिर में, लेकिन मांगते संसार हो। तुम्हारी मांग जब तक बनी है, तुम कैसे प्रार्थना करोगे ? जब तक तुम परमात्मा से कुछ मांग रहे हो, तब तक एक बात पक्की है कि तुम परमात्मा को नहीं मांग रहे हो तब तक परमात्मा से बड़ी कोई चीज है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि परमात्मा के सामने भी खड़े होकर तुम क्षुद्र चीजें मांग पाते हो। इसका अर्थ है कि परमात्मा से बड़ी हैं वे क्षुद्र चीजें। 

23-उदाहरण के लिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास जब विवेकानंद आए, तो उनका घर बड़ी दीन अवस्था में था। पिता चल बसे थे और बड़ा कर्ज छोड़ गए थे।स्वामी रामकृष्ण को पता लगा तो कहा, ''तू भी बड़ा मूर्ख है। यहां रोज काली के दरबार में उपस्थित होता है तो मांग क्यों नहीं लेता ? इतनी छोटी-सी बात, इसके लिए व्यर्थ कष्ट क्यों उठा रहा है ''?
तब विवेकानंद ने कहा, ‘आप कहते हैं तो मांग लूंगा।स्वामी रामकृष्ण मंदिर के बाहर
बैठे हैं, विवेकानंद भीतर गए। बड़ी देर बाद वापस लौटे तो रामकृष्ण ने पूछा ? मां को कहा ? तकलीफ बताई ? विवेकानंद ने कहा, मैं भूल गया। रामकृष्ण ने कहा, यह भी कोई भूलने की बात है ? भूखा है तू, मां तेरी भूखी, घर मुसीबत में, पैसा चुकता नहीं। जरा कह दे, इशारे की बात है, सब हो जाएगा। तू जा वापस। फिर घड़ी भर बाद विवेकानंद आए, आंख से आनंद के आंसू बह रहे हैं ।स्वामी रामकृष्ण ने कहा निश्चित तूने मांग लिया होगा, इसलिए प्रसन्न है। विवेकानन्द ने कहा, मैं फिर भूल गया।

24-ऐसा तीन बार हुआ। फिर विवेकानन्द ने कहा कि नहीं, यह हो ही नहीं सकेगा। क्योंकि जब मैं मां के सामने जाता हूं, तो मां ही दिखाई पड़ती है और सब भूल जाता हूं। मैं खुद को ही भूल जाता हूं तो मेरी तकलीफें, मेरी मुसीबतें कहां टिकें ? उनकी स्मृति कैसे रहे ? और यह असंभव मालूम पड़ता है।स्वामी रामकृष्ण ने कहा कि इसीलिए तुझे बार-बार भेजा, यह तेरी परीक्षा थी। क्योंकि मां के सामने अगर तू कुछ मांगने को राजी हो जाए, तो उसका अर्थ है कि अभी प्रार्थना का कोई उपाय नहीं। फिर प्रार्थना ही नहीं हो सकती।मांगने वाला चित्त भिखारी
का चित्त है, वह प्रार्थना क्या करेगा ? और परमात्मा से बड़ी चीजें उसके सामने हैं, जिनको वह मांग रहा है। जिसको परमात्मा ही चाहिए, वह उसके सामने कुछ भी नहीं मांग सकता। वह
परमात्मा को भी नहीं मांग सकता। क्योंकि अक्सर इसका दूसरा दृष्टिकोण खयाल में आ जाता है कि हम कुछ चीजें न मांगेंगे, हम परमात्मा को ही मांगेंगे।

25-चेतना में विचार का होना अशुद्धि है। शुद्ध विचार जैसी कोई चीज नहीं होती। क्योंकि शुद्धि का अर्थ निर्विचारता है, शुद्धि का अर्थ ही विचार का

अभाव है।उदाहरण के लिए आप दूध में शुद्ध पानी मिला देते हैं। शुद्ध ही दूध है और शुद्ध ही पानी है, तो दोनों मिलकर दोहरी शुद्धि हो जानी चाहिए। लेकिन दूध पानी मिलाने से,शुद्ध नहीं होता, अशुद्ध हो जाता है। क्योंकि पानी का स्वभाव अलग, दूध का स्वभाव अलग। पानी कितना ही शुद्ध हो, शुद्ध होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, दूध में मिलने से अशुद्ध होगा। और आप यह मत सोचना कि दूध ही अशुद्ध हुआ, पानी भी अशुद्ध हो गया। वह तो आपकी नजर दूध पर है इसलिए दूध अशुद्ध लग रहा है, अन्यथा पानी ने भी अपनी शुद्धि खो दी और दूध ने भी अपनी शुद्धि खो दी।

26-दो शुद्ध चीजें मिलीं और दोनों अशुद्ध हो गईं।विचार का अपना स्वभाव है। चेतना का अपना स्वभाव है। दोनों के स्वभाव अलग-अलग हैं, दोनों के मिलन से अशुद्धि होती है। विचार अपने में शुद्ध है, चेतना अपने में शुद्ध है। अपने में होना शुद्धि है, स्वभाव में होना शुद्धि है, विभाव अशुद्धि

है।इसलिए कोई शुद्ध विचार चेतना को शुद्ध नहीं कर सकते। कोई शुद्ध पानी दूध को शुद्ध नहीं कर सकता। निर्विचार जब भीतर का आकाश होता है, जहां कोई बादल नहीं, मंत्र के बादल भी नहीं, तब परमात्मा प्रत्यक्ष है। तब आप उस निराकार के साथ एक हैं।

शुरुआती साधना के लिए योग्य महामंत्र कैसे चुने ?-

07  FACTS;- 

1-किसी मंत्र को बार-बार दुहराना दुनिया के अधिकतर आध्यात्मिक मार्गों की शुरुआती साधना रही है। अधिकतर लोग मंत्र का इस्तेमाल किए बिना अपने भीतर ऊर्जा के सही स्तर तक ऊपर उठने में असमर्थ होते हैं।लगभग नब्बे फीसदी लोगों को खुद को सक्रिय करने के लिए हमेशा मंत्र की जरूरत पड़ती है। उसके बिना, वे अपनी ऊर्जा कायम नहीं रख पाते।

वास्तव में,प्रत्येक मनुष्य अपने आसपास एक आभामंडल लेकर चलता है। आप अकेले ही नहीं चलते, आपके आसपास एक विद्युत-वर्तुल, एक 'इलेक्ट्रो डायनेमिक फील्ड ' चलता है।व्यक्ति के आसपास ही नहीं, पशुओं और पौधों के आसपास भी।वैज्ञानिकों का कहना है कि जीव और अजीव में एक ही फर्क किया जा सकता है, जिसके ' आसपास आभामंडल है वह जीवित है और जिसके पास आभामंडल नहीं है, वह मृत है।

2-जब आदमी मरता है तो मरने के साथ ही आभामंडल क्षीण होना शुरू हो जाता है। बहुत चकित करनेवाली और संयोग की बात है कि जब कोई आदमी मरता है तो तीन दिन लगते हैं उसके आभामंडल के विसर्जित होने में। हजारों साल से सारी दुनिया में मरने के बाद तीसरे दिन का बड़ा मूल्य रहा है। जिन लोगों ने उस तीसरे दिन को इतना मूल्य दिया था, उन्हें किसी न किसी तरह इस बात का अनुभव होना ही चाहिए, क्योंकि वास्तविक मृत्यु तीसरे दिन घटित होती है। इन तीन दिनों के बीच, किसी भी दिन वैज्ञानिक उपाय खोज लेंगे, तो आदमी को पुनरुज्जीवित किया जा सकता है।

3-जब तक आभामंडल नहीं खो गया, तब तक जीवन अभी शेष है। हृदय की धड़कन बन्द हो जाने से जीवन समाप्त नहीं होता। इसलिए पिछले महायुद्ध में रूस में छह व्यक्तियों को हृदय की धड़कन बंद हो जाने के बाद पुनरुज्जीवित किया जा सका। जब तक आभामंडल चारों तरफ है, तब तक व्यक्ति सूक्ष्म तल पर अभी भी जीवन में वापस लौट सकता है। अभी सेतु कायम है। अभी रास्ता बना है वापस लौटने का।जो व्यक्ति जितना

जीवंत होता है, उसके आसपास उतना बड़ा आभामंडल होता है।

4-हम श्रीकृष्ण, श्रीराम, क्राइस्ट या महावीर की मूर्ति के आसपास एक आभामंडल निर्मित करते हैं। तो वह सिर्फ कल्पना नहीं है। वह आभामंडल देखा जा सकता है। और अब तक तो केवल वे ही देख सकते थे जिनके पास थोड़ी गहरी और सूक्ष्म दृष्टि हो ...मिस्टिक्स, संत, लेकिन अब 1930 में एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने तो केमिकल, रासायनिक प्रक्रिया निर्मित कर दी है जिससे प्रत्येक व्यक्ति /कोई भी ..उस यंत्र के माध्यम से दूसरे के आभामंडल को देख सकता है।

5-प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी आभामंडल है। जैसे आपके अंगूठे की छाप निजी है ; वैसे ही आपका आभामंडल भी निजी है। और आपका आभामंडल आपके संबंध में वह सब कुछ कहता है जो आप भी नहीं जानते।आपका आभामंडल आपके संबंध में, आपके भविष्य में घटित होंने वाली वे बातें भी कहता है जो अभी आपके गहन अचेतन में निर्मित हो रही हैं, बीज की भांति..कल खिलेगी और प्रगट होंगी।

6-मंत्र आभामंडल को बदलने की ,आपके आसपास की स्पेस, और आपके आसपास का 'इलेक्ट्रो डायनेमिक फील्ड ' बदलने की प्रक्रिया है। और प्रत्येक धर्म के पास एक नमन का महामंत्र है।नमन  है 'रीसिप्टिविटी'  /ग्राहकता। जैसे ही आप नमन करते हैं, वैसे ही आपका हृदय खुलता है और आप भीतर किसी को प्रवेश देने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि जिसके चरणों में आपने सिर रखा, उसको आप भीतर आने में बाधा न डालेंगे, निमंत्रण देंगे। जिसके प्रति आपने श्रद्धा प्रगट की, उसके लिए आपका द्वार, आपका घर खुला हो जाएगा। वह आपके घर, आपका हिस्सा होकर जी सकता है।

7-लेकिन ट्रस्ट नहीं है, भरोसा नहीं है, तो नमन असंभव है। और नमन असंभव है तो समझ असंभव है। नमन के साथ ही 'अंडरस्टेंडिंग' है, नमन के साथ ही समझ का जन्म है।अलग-अलग धर्मों ने अलग-अलग महामंत्र पाए हैं,जैसे ऊँ नमो शिवाय,ऊँ मणि पद्मे हुम्,एसो पंच नमुकारो-सब्बपावप्पणासणो  नमो अरिहंताणं...तो ऐसे महामंत्र एक अवस्था में उतरे हैं और इनका भीतर के  केंद्रों से  संबंध है।  

महामंत्रो का वर्णन

 1-'' ॐ नम: शिवाय”

 1-“ॐ नम: शिवाय” वह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है। इस मंत्र का अभ्यास विभिन्न आयामों में किया जा सकता है। इन्हें पंचाक्षर कहा गया है, इसमें पांच मंत्र हैं। ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं। इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है। ये पूरे तंत्र (सिस्टम) के शुद्धीकरण के लिए बहुत शक्तिशाली माध्यम हैं।

 2-ॐ ध्वनि का उच्चारण ओम के रूप में नहीं करना चाहिए। इसे उच्चारित करने का तरीका है, अपना मुंह खोलकर आSS बोलना, और जब आप धीरे-धीरे अपना मुंह बंद करते हैं, तो ये ऊ और म बन जाता है। ये स्वाभविक रूप से होता है। ये आप खुद नहीं करते। अगर आप बस अपना मुंह खोलकर सांस बाहर छोड़ें, तो ये आSS बन जाएगा। जैसे-जैसे आप मुंह बंद करेंगे, ये धीरे-धीरे उउऊ बनेगा और मुंह बंद होने पर म्म्म बन जाएगा।

 3-आSSउउऊम्म्म को अस्तित्व के बुनियादी ध्वनियों के रूप में जाना जाता है। अगर आप ये तीनों ध्वनियाँ एक साथ बोलें, तो आपको एक आधार मिलेगा। इसलिए आऊम सबसे बुनियादी मन्त्र है। तो इस मन्त्र को “ओम नमः शिवाय” के रूप में उच्चारित नहीं करना है, इसे “आऊम नमः शिवाय” के रूप में उच्चारित करना है।हम इस मंत्र को बहुत से अलग-अलग आयामों में देख सकते हैं।

 4-हम इस मंत्र को एक शुद्धीकरण की प्रक्रिया के रूप में साथ ही  ध्यान की अवस्था को पाने के लिए इसे एक नींव, एक आधार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। ‘ॐ नम: शिवाय’   किसी भी व्यक्ति के बारे में नहीं है। आप किसी का आह्वान नहीं कर रहे हैं। आप खुद को विलीन करना चाहते हैं, क्योंकि शिव विनाशकर्ता हैं। अगर आप एक विनाशकर्ता का आह्वान करके यह उम्मीद कर रहे हैं कि वह आपको बचाएगा, तो यह तो भूल है।अगर

आपके अंदर एक खास तरह की तैयारी नहीं है तो बेहतर होगा कि आप इस मंत्रोच्‍चारण को खूब ध्‍यान से सुनें, आप खुद मंत्रोच्‍चारण न करें।

4-'' ॐ_मणि_पद्मे_हुम्''

1-तिब्बत का मंत्र हैं '' ओंम मणि पद्मे हुम्''।अगर इस पूरे मंत्र को आप

दोहराएं , तो आप पाएंगे कि इसमें शरीर के कोई और हिस्से भाग ले रहे हैं। मणि, तो शरीर के और नीचे के हिस्से भाग ले रहे हैं। ओंम जैसे गले के ऊपर ही घूम कर रह जाता है। मणि हृदय तक चला जाता है। पद्ये नाभि तक चला जाता है। हुम् काम -सेंटर तक चला जाता है। अगर इस शब्द का ही उपयोग करें, तो फौरन पता चलेगा कि शरीर के अलग -अलग हिस्से तक इसका प्रवेश है।

2-अब ''ओंम मणि पद्मे हुम् '' अगर इस हुम् का बहुत प्रयोग किया जाए, तो सेक्स का सेंटर जो है, वह बाहर की तरफ प्रवाहित होना बंद हो जाता है। इतनी बड़ी चोट लगती है हुम् की। अगर इस हुम् का बार -बार उपयोग किया जाए, तो आदमी की कामुकता विदा हो जाती है। महावीर ने

जिन साधुओं को नग्न होने की आज्ञा दी थी, वे सिर्फ वे ही साधु थे जो हुम् का गहरा प्रयोग कर चुके थे।

 3-'' नमो_अरिहंताणं''

1-''णमो अरिहंताणं,णमो सिद्धाणं,णमो आयरियाणं,णमो उवज्झायाणं,णमो लोए सव्व साहूणं,एसो पंच णमोक्कारो, सव्व पाव-प्पणासणो।मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥''जैन परम्परा के पास नमोकार है.. अरिहंतो को नमस्कार।सिद्धों को नमस्कार।आचार्यों को नमस्कार।उपाध्यायों को नमस्कार।सर्व साधुओं को नमस्कार।..आश्रर्यकारक घोषणा।सब पाप का नाश कर दे, ऐसा महामंत्र है नमोकार। ठीक नहीं लगता कि नमोकार से कैसे पाप नष्ट हो जाएगा  लेकिन नमोकार से आपके आसपास ' इलेक्ट्रो_डायनेमिक_फील्ड ' रूपांतरित होता है और पाप करना असंभव हो जाता है। क्योंकि पाप करने के लिए आपके पास एक खास तरह का आभामंडल चाहिए।

2-अगर इस मंत्र को सीधा ही सुनेंगे तो लगेगा कैसे हो सकता है? एक चोर यह मंत्र पढ लेगा तो क्या होगा? एक हत्यारा यह मंत्र पढ लेगा तो क्या होगा? कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? पाप नष्ट होता है इसलिए, कि जब आप पाप करते हैं, उसके पहले आपके पास एक विशेष तरह का, पाप का आभामंडल चाहिए ..उसके बिना आप पाप नहीं कर सकते — वह आभामंडल अगर रूपांतरित हो जाए तो असंभव हो जाएगी बात, पाप करना असंभव हो जाएगा।

3-यह नमोकार  उस आभामंडल को बदलता होगा क्योंकि यह नमस्कार है, यह नमन का भाव है। नमन का अर्थ है समर्पण। यह शाब्दिक नहीं है। यह नमो अरिहंताणं, यह अरिहंतों को नमस्कार करता हूं यह शाब्दिक नहीं है, ये शब्द नहीं हैं, यह भाव है। अगर प्राणों में यह भाव सघन हो जाए कि अरिहंतों को नमस्कार करता हूं तो इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है, जो जानते हैं उनके चरणों में सिर रखता हूं। जो पहुंच गए हैं, उनके चरणों में समर्पित करता हूं। जो पा गए हैं, उनके द्वार पर मैं भिखारी बनकर खड़ा होने को तैयार हूं।

4-मंत्र की यही मूल आधारशिला है। शब्द में, विचार में, तरंग में भाव संग्रहीत और समाविष्ट हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है— नमो अरिहंताणं, मैं उन सबको जिन्होंने जीता और जाना अपने को, उनकी शरण में छोड़ता हूं तब उसका अहंकार तत्काल विगलित होता है। और जिन -जिन लोगों ने इस जगत में अरिहंतों की शरण में अपने को छोड़ा है, उस महाधारा में उसकी शक्ति सम्मिलित होती है। उस गंगा में वह भी एक हिस्सा हो जाता है। और इस चारों तरफ आकाश में, इस अरिहंत के भाव के आसपास जो ग्रुब्ज निर्मित हुए हैं, जो स्पेस में, आकाश में जो तरंगें संग्रहीत हुई हैं, उन संग्रहीत तरंगों में आपकी तरंग भी चोट करती है।

5-आपके चारों तरफ एक वर्षा हो जाती है जो आपको दिखाई नहीं पड़ती। आपके चारों ओर एक और दिव्यता का, भगवत्ता का लोक निर्मित हो जाता है। इस लोक के साथ, इस भाव लोक के साथ आप दूसरे तरह के व्यक्ति

हो जाते हैं।महामंत्र स्वयं के आसपास के आकाश को, स्वयं के आसपास के आभामंडल को बदलने की कीमिया है। और अगर कोई व्यक्ति दिन -रात जब भी उसे स्मरण मिले, तभी नमोकार में डूबता रहे, तो वह व्यक्ति दूसरा ही व्यक्ति हो जाएगा। वह वही व्यक्ति नहीं रह सकता, जो वह था।

6-पांच नमस्कार हैं। अरिहंत को नमस्कार। अरिहंत का अर्थ होता है : जिसके सारे शत्रु विनष्ट हो गये; जिसके भीतर अब कुछ ऐसा नहीं रहा जिससे उसे लड़ना पड़ेगा। लड़ाई समाप्त हो गयी।अब भीतर क्रोध नहीं है जिससे लड़ना पड़े, भीतर अब काम नहीं है, जिससे लड़ना पड़े, अज्ञान नहीं है। वे सब समाप्त हो गये जिनसे लड़ाई थी।

7-अब एक 'नान -कानल्‍फिक्‍ट', एक निर्द्वंद्व अस्तित्व शुरू हुआ।

अरिहंत शिखर है, मंजिल है, जिसके आगे यात्रा नहीं है।कुछ करने को न बचा जहां, कुछ पाने को न बचा जहां, कुछ छोड़ने को भी न बचा ,जहां  सब समाप्त हो गया , जहां शुद्ध अस्तित्व रह गया। जहां ब्रह्म मात्र रह गया,'प्योर एग्जिस्टेंस '; जहां होना मात्र रह गया, उसे कहते हैं अरिहंत।

यह बात भीअदभुत है कि इस महामंत्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। न महावीर का , न पार्श्वनाथ का,  किसी का नाम नहीं है।

8-जैन परंपरा का भी कोई नाम नहीं है क्योंकि जैन परंपरा यह स्वीकार करती है कि अरिहंत जैन परंपरा में ही नहीं हुए हैं और सब परंपराओं में भी हुए हैं। इसलिए अरिहंतों को नमस्कार है - किसी अरिहंत को नहीं है। यह नमस्कार बड़ा विराट है।व्यक्तित्व पर जैसे खयाल ही नहीं है, शक्ति पर खयाल है। रूप पर ध्यान ही नहीं है, वह जो अरूप सत्ता है, उसी का खयाल है ..अरिहंतों को नमस्कार।
9-अब महावीर को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए महावीर को नमस्कार; बुद्ध को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए बुद्ध को नमस्कार; राम को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए राम को नमस्कार— पर यह मंत्र बहुत अनूठा है  जो सिर्फ इतना कहता है ...अरिहंतों को नमस्कार; सबको नमस्कार जिनकी मंजिल आ गयी है। असल में मंजिल को नमस्कार। वे जो पहुंच गये, उनको नमस्कार।

10-लेकिन अरिहंत शब्द निगेटिव है, नकारात्मक है। उसका अर्थ है..जिनके शत्रु समाप्त हो गये। वह पाजिटिव नहीं है। असल में इस जगत में जो श्रेष्ठतम अवस्था है उसको निषेध से ही प्रगट किया जा सकता है, 'नेति -नेति' से, उसको पॉजिटिव शब्द नहीं दिया जा सकता। उसके कारण हैं। सभी पॉजिटिव शब्दों में सीमा आ जाती है, निषेध में सीमा नहीं होती। अगर  कोई कहता है.. 'ऐसा है', तो एक सीमा निर्मित होती है। अगर कोई कहता है  ..'ऐसा नहीं है', तो कोई सीमा नहीं निर्मित होती। 'नहीं' की कोई सीमा नहीं है, 'है' की तो सीमा है। तो 'है' तो बहुत छोटा शब्द है। 'नहीं' है बहुत विराट।

11-इसलिए परम शिखर पर रखा है अरिहंत को। सिर्फ इतना ही कहा है कि जिनके शत्रु समाप्त हो गये, जिनके अंतर्द्वंद्व विलीन हो गये ..नकारात्मक --जिनमें लोभ नहीं, मोह नहीं, काम नहीं।  क्या है, यह नहीं कहा, क्या नहीं

है जिनमें, वह कहा।इसलिए अरिहंत बहुत 'एब्सट्रेक्ट ' शब्द है और शायद पकड़ में न आये, इसलिए ठीक दूसरे शब्द में 'पॉजिटिव' का उपयोग किया है ..नमो सिद्धाणं। सिद्ध का अर्थ होता है वे, जिन्होंने पा लिया। अरिहंत का अर्थ होता है वे, जिन्होंने कुछ छोड दिया। सिद्ध बहुत 'पाजिटिव' शब्द है। सिद्धि, उपलब्धि, 'अचीवमेंट', जिन्होंने पा लिया।

12-लेकिन ध्यान रहे, उनको ऊपर रखा है जिन्होंने खो दिया। उनको नंबर दो पर रखा है जिन्होंने पा लिया।सिद्ध अरिहंत से छोटा नहीं होता — सिद्ध वहीं पहुंचता है जहां अरिहंत पहुंचता है, लेकिन भाषा में पाजिटिव नंबर दो पर रखा जाएगा। 'नहीं ', 'शून्य' प्रथम है, 'होना' द्वितीय है, इसलिए सिद्ध को दूसरे स्थल पर रखा। लेकिन सिद्ध के संबंध में भी सिर्फ इतनी ही सूचना है. पहुंच गये, और कुछ नहीं कहा है। कोई विशेषण नहीं जोड़ा। पर जो पहुंच गये, इतने से भी हमारी समझ में नहीं आएगा।

13-अरिहंत भी हमें बहुत दूर लगता है - शून्य हो गये जो, निर्वाण को पा गये जो, मिट गये जो, नहीं रहे जो। सिद्ध भी बहुत दूर हैं। सिर्फ इतना ही कहा है, पा लिया जिन्होंने। लेकिन क्या? और पा लिया, तो हम कैसे जानें? क्योंकि सिद्ध होना अनभिव्यक्त भी हो सकता है,

'अनमेनिफेस्टड' भी हो सकता है।गौतम बुद्ध से कोई पूछता है कि आपके ये दस हजार भिक्षु है —इनमें से और कितनों ने बुद्धत्व को पा लिया है? बुद्ध कहते हैं ' बहुतों ने'। लेकिन वह पूछनेवाला कहता है ..दिखाई नहीं पड़ता। तो बुद्ध कहते हैं '' मैं प्रगट होता हूं वे अप्रगट हैं। वे अपने में छिपे हैं, जैसे बीज में वृक्ष छिपा हो''।

14-तो सिद्ध तो बीज जैसा है, पा लिया। और बहुत बार ऐसा होता है कि पाने की घटना घटती है और वह इतनी गहन होती है कि प्रगट करने की चेष्टा भी उससे पैदा नहीं होती। इसलिए सभी सिद्ध बोलते नहीं, सभी अरिहंत बोलते नहीं। सभी सिद्ध, सिद्ध होने के बाद जीते भी नहीं। इतनी लीन भी हो सकती है चेतना उस उपलब्धि में कि तत्क्षण शरीर छूट जाए। इसलिए हमारी पकड़ में सिद्ध भी न आ सकेगा। और मंत्र तो ऐसा चाहिए जो पहली सीढ़ी से लेकर आखिरी शिखर तक, जहां जिसकी पकड़ में आ जाए, जो जहां खड़ा हो वहीं से यात्रा कर सके। इसलिए तीसरा सूत्र कहा है, 'आचार्यों को नमस्कार'।

15-आचार्य का अर्थ है : वह जिसने पाया भी और आचरण से प्रगट भी किया , जिसका जान और आचरण एक है। ऐसा नहीं है कि सिद्ध का आचरण ज्ञान से भिन्न होता है। लेकिन शून्य हो सकता है। हो ही न, आचरण -शून्य ही हो जाए। ऐसा भी नहीं है कि अरिहंत का आचरण भिन्न होता है, लेकिन अरिहंत इतना निराकार हो जाता है कि आचरण हमारी पकड में न आएगा। हमें फ्रेम चाहिए जिसमें पकड़ में आ जाए। आचार्य से शायद हमें निकटता मालूम पड़ेगी। उसका अर्थ है कि जिसका ज्ञान आचरण है। क्योंकि हम ज्ञान को तो न पहचान पाएंगे, आचरण को पहचान लेंगे।

16-इससे खतरा भी हुआ। क्योंकि आचरण ऐसा भी हो सकता है जैसा ज्ञान न हो। एक आदमी अहिंसक न हो, अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी अहिंसक हो तो हिंसा का आचरण नहीं कर सकता ..वह तो असंभव है ..लेकिन एक आदमी अहिंसक न हो और अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी लोभी हो और अलोभ का आचरण कर सकता है। उलटा नहीं है, 'द वाइस वरसा इज नाट पासिबल'। इससे एक खतरा भी पैदा हुआ। आचार्य हमारी पकड़ में आता है, लेकिन वहीं से खतरा शुरू होता है; जहां से हमारी पकड़ शुरू होती है, वहीं से खतरा शुरू होता है। तब खतरा यह है कि कोई आदमी आचरण ऐसा कर सकता है कि आचार्य मालूम पड़े। तो मजबूरी है हमारी। जहां से सीमाएं बननी शुरू होती हैं, वहीं से हमें दिखाई पड़ता है। और जहां से हमें दिखाई पड़ता है, वहीं से हमारे अंधे होने का डर है।

17-पर मंत्र का प्रयोजन यही है कि हम उनको नमस्कार करते हैं जिनका ज्ञान उनका आचरण है। यहां भी कोई विशेषण नहीं है। वे कोई भी हों।

आचरण के रास्ते सूक्ष्म हैं, बहुत कठिन हैं। और हम सब के आचरण के संबंध में बंधे -बंधाये खयाल हैं। ऐसा करो ..और जो ऐसा करने को राजी हो जाते हैं, वे करीब ..करीब मुर्दा लोग हैं। जो आपकी मानकर आचरण कर लेते हैं, उन मुर्दों को आप काफी पूजा देते हैं। इसमें कहा है, आचार्यों को नमस्कार। आप आचरण तय नहीं करेंगे, उनका ज्ञान ही उनका आचरण तय करेगा। और ज्ञान परम स्वतंत्रता है। जो व्यक्ति आचार्य को नमस्कार कर रहा है, वह यह भाव कर रहा है कि मैं नहीं जानता क्या है ज्ञान, क्या है आचरण, लेकिन जिनका भी आचरण उनके ज्ञान से उपजता और बहता है, उनको मैं नमस्कार करता हूं।

18-अभी भी बात सूक्ष्म है; इसलिए चौथे चरण में, उपाध्यायों को नमस्कार। उपाध्याय का अर्थ है ..वह जो बताता भी है क्योंकि हम मौन से न समझ पाएं.. । ज्ञान ही नहीं, आचरण ही नहीं, उपदेश भी। वे जो जानते हैं, जानकर वैसा जीते हैं; और जैसा वे जीते हैं और जानते हैं, वैसा बताते भी हैं।आचार्य मौन हो सकता है। वह मान सकता है कि आचरण काफी है। और अगर तुम्हें आचरण दिखाई नहीं पड़ता तो तुम जानो। उपाध्याय आप पर और भी दया करता है। वह बोलता भी है, वह आपको कहकर भी बताता है।

19-ये चार सुस्पष्ट रेखाएं हैं। लेकिन इन चार के बाहर भी जानने वाले छूट जाएंगे। क्योंकि जानने वालों को बांधा नहीं जा सकता 'कैटेगरीज़' में। इसलिए मंत्र बहुत हैरानी का है। इसलिए पांचवें चरण में एक सामान्य नमस्कार है — 'नमो लोए सव्वसाहूणं'। लोक में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जगत में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जो उन चार में कहीं भी छूट गये हों, उनके प्रति भी हमारा नमन न छूट जाए। क्योंकि उन चार में बहुत लोग छूट सकते हैं। जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है, कैटेगराइज़ नहीं किया जा सकता, खांचों में नहीं ' बांटा जा सकता। इसलिए जो शेष रह जाएंगे, उनको सिर्फ साधु कहा .. वे जो सरल हैं।

20-और साधु का एक अर्थ और भी है। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि उपदेश देने में भी संकोच करे। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि आचरण को भी छिपाये। पर उसको भी हमारे नमस्कार पहुंचने चाहिए।

सवाल यह नहीं है कि हमारे नमस्कार से उसको कुछ फायदा होगा, सवाल यह है कि हमारा नमस्कार हमें रूपांतरित करता है। न अरिहंतों को कोई फायदा होगा, न सिद्धों को, न आचार्यों को, न उपाध्यायों को, न साधुओं को  ... पर आपको फायदा होगा।

21-यह बहुत आश्चर्य की बात है कि हम सोचते हैं कि शायद इस नमस्कार में हम सिद्धों के लिए, अरिहंतों के लिए कुछ कर रहे हैं, तो इस भूल में मत पड़ना।आप उनके लिए कुछ भी न कर सकेंगे, या आप जो भी करेंगे उसमें उपद्रव ही करेंगे। आपकी इतनी ही कृपा काफी है कि आप उनके लिए कुछ न करें। आप गलत ही कर सकते हैं। नहीं, यह नमस्कार अरिहंतों के लिए नहीं है, अरिहंतों की तरफ है, लेकिन आपके लिए है। इसके जो परिणाम हैं, वह आप पर होने वाले हैं। जो फल है, वह आप पर बरसेगा।

22-अगर कोई व्यक्ति इस भांति नमन से भरा हो, तो क्या आप सोचते हैं उस व्यक्ति में अहंकार टिक सकेगा? असंभव है।लेकिन नहीं,हम बहुत

अदभुत लोग हैं। अगर अरिहंत सामने खड़ा हो तो हम पहले इस बात का पता लगाएंगे कि अरिहंत है भी? महावीर के आसपास भी लोग यही पता लगाते -लगाते जीवन नष्ट किये -अरिहंत है भी? तीर्थंकर है भी? और आपको पता नहीं है, आप सोचते हैं कि बस तय हो गया, महावीर के वक्त में बात इतनी तय न थी। और भी भीड़ें थीं, और भी लोग थे जो कह रहे थे  -ये अरिहंत नहीं हैं, अरिहंत और हैं। गोशालक है अरिहंत। ये तीर्थंकर नहीं हैं, यह दावा झूठा है।

23-नमोकार नमन का सूत्र है। यह पांच चरणों में समस्त जगत में जिन्होंने भी कुछ पाया है, जिन्होंने भी कुछ जाना है, जिन्होंने भी कुछ जीया है, जो जीवन के अंतर्तम गढ़ रहस्य से परिचित हुए हैं, जिन्होंने मृत्यु पर विजय पायी है, जिन्होंने शरीर के पार कुछ पहचाना है उन सबके प्रति -समय और क्षेत्र दोनों में नमन। लोक दो अर्थ रखता है ..वे जो विस्तार में हैं , स्पेस में, आकाश में ;जो आज हैं वे , लेकिन जो कल थे वे भी और जो कल होंगे वे भी।

24- सब्ब लोए/सर्व लोक में, सब्बसाहूणं : समस्त साधुओं को। समय के अंतराल में पीछे कभी जो हुए हों वे, भविष्य में जो होंगे वे, आज जो हैं वे, समय या क्षेत्र में कहीं भी जब भी कहीं कोई ज्योति ज्ञान की जली हो, उस सबके लिए नमस्कार। इस नमस्कार के साथ ही आप तैयार होंगे।  फिर महावीर की वाणी को समझना आसान होगा। इस नमन के बाद ही, इस झुकने के बाद ही आपकी झोली फैलेगी और महावीर की संपदा उसमें गिर सकती है।
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💯✔ मूल_बीज_मंत्र

मूल बीज मंत्र " ॐ" होता है जिसे आगे कई अलग बीज में बांटा जाता है- योग बीज, तेजो बीज, शांति बीज, रक्षा बीज.
1. देव_बीज_मंत्र
देव बीज मंत्र का उच्चारण करने से सभी देवताओं के दिव्य आशीर्वाद की प्राप्ति होती हैं। 

2. दुर्गा_बीज_मंत्र
दुर्गा बीज मंत्र का उच्चारण करने से दुर्गा माँ ज़िदगी में आई हर रुकावट पर विजय हासिल करने में मदद करती हैं। 

3. भार्गव_बीज_मंत्र
भार्गव बीज मंत्र का उच्चारण करने से अगर हम सभी दिव्य शक्तियों से अपनी ज़िंदगी की सुरक्षा के लिए आशीर्वाद मांगे तो हम पूरे संसार में सुरक्षित रह सकते हैं। 

4. काली_माता_बीज_मंत्र
"क्रीं, मंत्र शक्ति या काली माता का रूप होता हैं। सभी प्रमुख तत्वों जैसे आग, जल, धरती, वायु और आकाश पर विजय पाने के काली माता बीज मंत्र सबसे ज्यादा प्रभावशाली होता हैं. सभी शत्रुओं का नाश करने में भी ये मंत्र सफल होता हैं। 

5. नरसिंहा_बीज_मंत्र
नरसिंहा बीज मंत्र हमें मोह-माया के बंधनों से मुक्ति दिलवाता हैं। इस मंत्र के उच्चारण से गहरी मानसिक शांति भी पाई जा सकती हैं।

 नोंध 

ये सब बीज इस प्रकार जपे जाते हैं- ॐ, क्रीं, श्रीं, ह्रौं, ह्रीं, ऐं, गं, फ्रौं, दं, भ्रं, धूं,हलीं, त्रीं,क्ष्रौं, धं,हं,रां, यं, क्षं, तं.

10 बीज_मंत्र

1-“ऐं”
“ऐं” सरस्वती बीज । यह मां सरस्वती का बीज मंत्र है, इसे वाग् बीज भी कहते हैं। जब बौद्धिक कार्यों में सफलता की कामना हो, तो यह मंत्र उपयोगी होता है। जब विद्या, ज्ञान व वाक् सिद्धि की कामना हो, तो श्वेत आसान पर पूर्वाभिमुख बैठकर स्फटिक की माला से नित्य इस बीज मंत्र का एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

2-“ह्रीं” 

“ह्रीं” भुवनेश्वरी बीज । यह मां भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है। इसे माया बीज कहते हैं। जब शक्ति, सुरक्षा, पराक्रम, लक्ष्मी व देवी कृपा की प्राप्ति हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

3-“क्लीं”

“क्लीं” काम बीज । यह कामदेव, कृष्ण व काली इन तीनों का बीज मंत्र है। जब सर्व कार्य सिद्धि व सौंदर्य प्राप्ति की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

4-श्रीं”

“श्रीं” लक्ष्मी बीज । यह मां लक्ष्मी का बीज मंत्र है। जब धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पश्चिम मुख होकर कमलगट्टे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

5- हं (हनुमद् बीज)

इसमें ह्-हनुमान, अ- संकटमोचन एवं बिंदु- दुखहरण है। इसका अर्थ है- संकटमोचन हनुमान मेरे दुख दूर करें। बजरंग बली की आराधना के लिए इससे बेहतर मंत्र नहीं है।

6--"ह्रौं"

"ह्रौं" शिव बीज । यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।इस बीज में ह्- शिव, औ- सदाशिव एवं बिंदु- दुखहरण है। इस बीज का अर्थ है- भगवान शिव मेरे दुख दूर करें।

7-"गं"

"गं" गणेश बीज । यह गणपति का बीज मंत्र है। विघ्नों को दूर करने तथा धन-संपदा की प्राप्ति के लिए पीले रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

8-श्रौं"

"श्रौं" नृसिंह बीज । यह भगवान नृसिंह का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, सर्व रक्षा बल, पराक्रम व आत्मविश्वास की वृद्धि के लिए लाल रंग के आसन पर दक्षिणाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या मूंगे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

9-“क्रीं”

“क्रीं” काली बीज । यह काली का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, पराक्रम, सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए लाल रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

10-“दं”

“दं” विष्णु बीज । यह भगवान विष्णु का बीज मंत्र है। धन, संपत्ति, सुरक्षा, दांपत्य सुख, मोक्ष व विजय की कामना हेतु पीले रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर तुलसी की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

नमः ,स्वाहा, स्वधा, वषट, वौषट, हुम् ,फट् ... इन शब्दों का क्या मतलब होता है और मंत्रो के अंत में ऐसे शब्द के उच्चार क्यों किये जाते है ?-

1-कुछ मंत्रो के अंत में नमः आता है तो किसी के अंत में स्वाहा ,स्वधा ,

वषट ,वौषट फट् आदि ।इन शब्दों का क्या मतलब होता है और मंत्रो के अंत में ऐसे शब्द के उच्चार क्यों किये जाते है ?

2-वास्तव में इस संसार में जो भी मन्त्र है, शब्द हैं उसमें जो मातृका शक्ति है, अक्षर शक्ति है ओर उन शब्दों से जो अर्थ या ज्ञानबोध होता है वो सब महामाया जगदम्बा का ही वैभव है।मंत्र शब्द मन +त्र के संयोग से बना है !मन का अर्थ है सोच ,विचार ,मनन ,या चिंतन करना ! और “त्र ” का अर्थ है बचाने वाला , सब प्रकार के अनर्थ, भय से !

3-लिंग भेद से मंत्रो का विभाजन पुरुष ,स्त्री ,तथा नपुंसक के रूप में है !पुरुष मन्त्रों के अंत में “हूं फट ” स्त्री मंत्रो के अंत में “स्वाहा ” ,तथा नपुंसक मन्त्रों के अंत में “नमः ” लगता है ! मंत्र साधना का योग से घनिष्ठ सम्बन्ध है……

1- नमः 

नमः का मतलब होता है नमस्कार करना । वंदन करना । जैसे ॐ नमः शिवाय का मतलब " हे शिव, में आपको वंदन करता हूं / प्रणाम करता हूं ।"

2- स्वाहा 

यदि किसी मंत्र के अंत मे स्वाहा आता हो तो स्वाहा का मतलब किसीको सलाम करना, रिसपेक्ट देना, प्रशंसा करना और शरण में जाना ऐसा होता

है। जैसे ॐ ह्रीं सूर्याय स्वाहा ।अगर हवन करते वक्त स्वाहा बोला जाय तो मतलब अग्नि स्वरूप देवताओं के लिए अग्नि में कुछ अर्पण करना ।

3- स्वधा

स्वधा का मतलब कुछ ना कुछ पितृओ को अर्पण करना । पितृओ की इच्छा या वासना तृप्त करने हेतु तर्पण मंत्रों से पितृओ को जल अर्पण करना या श्राध्द में पिंड देना । स्वधा शब्द का प्रयोग सिर्फ पितृओ के लिए किया जाता है । स्वधा का मतलब आप स्वीकार करें ।

4- वषट्

वषट का मतलब वश मे हो जाओ। काबु मे आ जाओ । कंट्रोल में रहो । जब हम कोई साधना करते हैं तो कुछ मंत्रों के अंत मे वषट आता है ।

5- हुम् 

हुम् एक ध्वनि है जिसको mantra के अंत मे बोलने से हमारे आसपास एक कवच बन जाता है।हुम् का मतलब हमारी रक्षा हो।जब हम तांत्रिक प्रयोग या मंत्र करते है तो हमारी खुद की रक्षा करना भी जरूरी हो जाता है ।

6- वौषट्

वौषट का मतलब भी वश करना ही होता है पर उसका संबंध दृष्टि के साथ है। किसी भी साधना में जब कोई लक्ष्य या सिद्धि प्राप्त करनी हो तो वौषट शब्द का प्रयोग होता है। जैसे की मैं अपनी आंखों से ये देख पाऊं या मेरी दृष्टि में वो प्राप्त हो ।

7- फट्

फट् शब्द का मतलब है बाण छोड़ना । किसी ध्येय को प्राप्त करने या किसी इन्सान को नज़र मे रख के कोई मंत्र पढ़ा जाता हो तो अंत मे फट बोला जाता है । फट् बोलने से वो मंत्र सीधा वो इन्सान या वस्तु की तरफ

जाता है ।अंत मे अगर ' हुम् फट्' बोला जाय तो उसका मतलब है .... मैं अपनी रक्षा करते हुए उसकी तरफ ये मंत्र छोड़ता हूं । जैसे " ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुम् फट् ।"

8 नोंध

जिसके अंत मे वषट और फट जैसे शब्द आते हो ऐसे मंत्र सावधानी पूर्वक करने चाहिए क्योंकि किसी का नुकसान करने वाले मंत्रो का रिएक्शन भी हो सकता है ।ध्यान रहे मंत्र में जहाँ पर फट शब्द आता है वहा  
फट बोलने के साथ-साथ 2 उँगलियों से दुसरे हाथ की हथेली पर ताली बजानी है।

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