मङ्गलम्
मङ्गलम् (शुभाशुभ प्रार्थना)
यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ।।1।।
भावार्थ― जिस (भूमि) में महासागर, नदियाँ और जलाशय (झोल, सरोवर आदि) विद्यमान हैं, जिसमें अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ उपजते हैं तथा कृषि, व्यापार आदि करने वाले लोग सामाजिक संगठन बना कर रहते हैं (कृष्टयः सं बभूवुः), जिस (भूमि) में ये साँस लेते (प्राणत्) प्राणी चलते-फिरते हैं, वह मातृभूमि हमें प्रथम भोज्य पदार्थ (खाद्य-पेय) प्रदान करे।
यस्याश्चतस्त्रः प्रदिशः पृथिव्या यस्यामन्नं कृष्टयः स बभूवुः।
या विभर्ति बहुधा प्राणदेजत् सा नो भूमिगोष्वप्यने दधातु ॥2॥
भावार्थ― जिस भूमि में चार दिशाएँ तथा उपदिशाएँ अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ (फल, शाक आदि) उपजाती हैं, जहाँ कृषि कार्य करने वाले सामाजिक संगठन बनाकर रहते हैं (कृष्टयः सं बभूवुः), जो (भूमि) अनेक प्रकार के प्राणियों (साँस लेने वालों तथा चलने-फिरने वाले जीवों) को धारण करती है, वह मातृभूमि हमें गौ-आदि लाभप्रद पशुओं तथा खाद्य पदार्थों के विषय में सम्पन्न बना दे।
जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।
सहस्त्र धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती ॥3॥
भावार्थ― अनेक प्रकार से विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले तथा अनेक धर्मों को मानने वाले जन-समुदाय को, एक ही घर में रहने वाले लोगों के समान, धारण करने वाली तथा कभी नष्ट न होने देने वाली (अनपस्फुरन्ती) स्थिर जैसी यह पृथ्वी हमारे लिए धन की सहस्रों धाराओं का उसी प्रकार दोहन करे जैसे कोई गाय बिना किसी बाधा के दूध देती हो।
Comments
Post a Comment