आरती की रचना किसने की और कैसे हुई

 आरती की रचना किसने की और कैसे हुई

                           


       

मूलचंदजी भोजक एक ऐसे जैन श्रावक थे,जो धुलेवा नगर ( केसरियाजी तीर्थ ) में रहते थे। नित्य रोज, सुबह शाम तीन-तीन घंटे दादा-दादा करते, दुसरा कुछ भी नहीं, करण की! लोगों के लिए नहीं। आदीनाथ भगवान की भक्ति के लिए गाते थे।

         

         समय के साथ ढलती उम्र गुजरते ६0 साल बित गये, ६0 वर्षो तक निरंतर सुबह शाम अखंड भक्ति करते रहे, एक भी दिन खाली नहीं गया, एक भी दिन फुरसत से कहीं गये नहीं।

       

         एक दिन मूलचंदजी की लडकियाँ वड़नगर गुजरात से लेने आई । पिताजी आप हमारे साथ चलो । मूलचंदजी रोते हुऐ बोले, इस भगवान को छोडकर कहीं नहीं जाऊँगा । लड़कीयो ने पुरा समान बाँध लिया, फिर भी तैयार हो गये।

         

         मूलचंदजी प्रभु के पास गये हुसके हुसके रोने लगे, प्रभु ! मैंने तेरी भक्ति में क्या कमी रखी, जो आज तक, तेरा और मेरा ये नाता तोडने का काम किया, ६०-६० साल की अखंड तेरी भक्ति, एक पल में टुटकर चकना चूर हो जाएगी, ऐसी कल्पना भी, नहीं थी मुझे।

       

         पैर चलते नहीं बुढापे की उम्र थी। देरासर मे से बाहर निकले, पैरो में झन झनाहठ हुई, वापस देरासर में गये स्तवना की बहार आयें, वापस पैरो में झन झनाहठ हुई , वापस देरासर में गये, ऐसा! एक बार--दो बार--तीन बार--चार बार--पाँच बार--छे बार, ऐसे सात बार अंदर गये वापस बहार आये, आठवें बार अंदर गये और इतना रोय की मुख से आवाज भी नहीं निकल रही थी।

        

         हे प्रभु! यातो यहाँ से मेरा शरीर मृत होकर बाहर जायेंगा या फिर, प्रभु तुम्हारे साथ ही बाहर जाऊंगा,अथवा मैं! अकेले नहीं जा सकता। मभ

         

         २० मिनट तक रोते हुए हाथ लम्बा कर भगवान के पास मूलचंदजी विनती करते रहे, प्रभु! साथ दो, मैं नहीं निकल सकता, इतना कहते ही, भगवान का दायां (जमणा) पैर का अंगूठा टूटकर, कुदरती मूलचंदजी के हाथों आया। मूलचंदजी अंगूठे को देखकर हर्षो उल्लास होकर बोले, भगवान आप ! आवाज आई हा ! इस अंगूठे में, मैं ही हूँ , लेजा इसे तेरे साथ।

         

         मूलचंदजी गुजरात में किशनगढ़ के पास वडनगर गये। कहां केसरियाजी और कहां वडनगर का नया देरासर , 

और देरासर में प्रभु के अंगूठे की स्थापना कर, तीन घण्टे सुबह तीन घण्टे शाम, प्रभु की भक्ति मूलचंदजी ने अखंड रखी। 

         

         एक दिन वडनगर संघ के लोगों को आश्चर्य हुआ और पुछा? मूलचंदजी भगवान को छोड़कर, अंगूठे के साथ क्या मिलन होगा। तभी संघ एक बार आग्रपुर्वक पुछते हैं? मूलचंदजी अंगूठे की क्या महत्वता है। तब मूलचंदजी कहते है.......

                                    

                        🚩🚩🚩आरती🚩🚩🚩 ---------------> का ---------------- > अर्थ

                                                                                                                         

जय जय आरती आदि जिणंदा , नाभिराया मरुदेवी को नंदा -----> नाभिराजा और मरुदेवी के पुत्र, हे.. आदीनाथ  

                                                                                                  प्रभु! आपकी आरती जयवन्त हो जयवन्त हो ।


पहली  आरती   पूजा   कीजे.., नरभव पामीने  लाहो लीजे -----> मानव भव पाकर पहली आरती से पूजा करके

                                                                                                 लाभ  उठावें ।                

दुसरी आरती दीन दयाला.., धुळेवा मंडपमां जग अजवाळा -----> जिसने धुलेवा नगर (केसरियाजी) से जगत को

                                                                                               प्रकाशित किया है , ऐसे हे.. दीनदयाल ! यह  आपकी                                                                                                दुसरी आरती हैं , धुळेवा में प्रथम हमारा नाथ बैठा है 


तीसरी आरती त्रिभुवन देवा.., सुरनर  इन्द्र  करे  तोरी सेवा -----> देव मनुष्य और इन्द्र आपकी सेवा करते हैं ! ऐसे 

                                                                                                तीनों लोको के स्वामी ! आपकी तीसरी आरती हैं।


चोथी आरती चउगति चुरे.., मनवांछित फल शिवसुख पुरे -----> चार गति का नाश करके मनोवांछित फल--मोक्ष

                                                                                                सुख को देनेवाली ! आपकी चौथी आरती हैं !


पंचमी आरती पुन्य उपाया..,, मूळचन्दे  ऋषभ  गुण गाया -----> पाँचवी आरती  पुण्य प्राप्ती का उपाय हैं ऐसे          

                                                                                              मूलचंद जी ने श्री ऋषभदेव के गुण गाये ।


ये मूलचंदजी भोजक भगवान को भी अपने साथ लेकर आये , कैसी अटूट भक्ति ! धन्य है हमारा जिनशासन ।

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