आत्मा की पहचान*
तर्ज – शुभ केलि के आनंद के...... (रत्नाकर पच्चीसी)
*कर्म कैसे बंध होते ? , पहले इसको जान लो।*
कर्म आने के है रस्ते , आस्रवों को मान लोI
मिथ्यात्व अव्रत प्रमाद कषाय , अशुभ योग को जाननाI
ये पंच आश्रव से निरंतर , कर्म पानी आवता।
कर्म पंथ जाने नहीं , वे आत्मा क्या जानतेI
*अव्रत के आस्रव से निरंतर , पाप पानी आ रहा।*
ज्यों नावडी के छिद्र से , जल सिन्धु का भरता रहा।
आत्म-आत्म रटते भोले , व्रत त्याग करते नहींI
वे मूढ़ मानव दुर्गति से , त्रिकाल में बचते नहीं।
इस खतरे को जाने नहीं , वे आत्मा क्या जानतेI
*फंसकर स्वयं भ्रम जाल में , भोले जगत को फांसतेII*
*आरम्भ को तजते नहीं , और भाव शुद्धि बोलतेI*
ऊपर की ज्वाला शांत है , अंदर अहं को पोषतेI
महाभयंकर अहंकार , अप्रमत्त को होता नहीं।
व्रत के बिना प्रमाद ये , त्रिकाल में मिटता नहीं।
इस तत्व को जाने नहीं , वे आत्मा क्या जानतेI
*फंसकर स्वयं भ्रम जाल में , भोले जगत को फांसतेII*
*पृथ्वी पानी अग्नि वायु , वनस्पति भी जीव हैI*
इनमे भी होती चेतना , इनको भी होती पीड हैI
*पंडित बने तो क्या हुआ , जो जीव को जाने नहींI*
निज आत्म सम सब जीव है , ऐसा अगर माने नहींI
दुःख दे रहे छः काय को , वे आत्मा क्या जानतेI
*फंसकर स्वयं भ्रम जाल में , भोले जगत को फांसतेII*
*इन्द्रियों का दास बनकर , भौतिक सुख में राचताI*
*छः काय की हिंसा करे, निज मौज मस्ती मांडताI*
त्याग और वैराग्य की , नहीं बात कोई मानताI
भाव शुद्धि—भाव शुद्धि , तोता रटन ही जानताI
पुदगल सुखों में जो रचे , वे आत्मा क्या जानतेI
*फंसकर स्वयं भ्रम जाल में , भोले जगत को फांसतेII*
*अशुद्ध भाव को शुद्ध समझे , सावध्य को नहीं जानतेI*
कर्म का बंधन किया , और भाव से नहीं छोड़तेI
सामायिक करते नहीं , और ढोंग इसको मानतेI
दो घड़ी सावध्य वर्जन , त्याग को नहीं जानतेI
कुतर्क जाल में फंस रहे , वे आत्मा क्या जानतेI
फंसकर स्वयं भ्रम जाल में , भोले जगत को फांसतेII
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