87000 वर्ष प्राचीन भोपावर महातीर्थ की ऐतिहासिकता...
मालव भूमि पर राज मुकुट से हजारो गुणा शोभायमान भोपावर
महातीर्थ इंदौर-अहमदाबाद सड़क राजमार्ग पर माही नदी के
निकट तथा राजगढ़ नगर से 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
यहाँ पर 16 वें तीर्थंकर परमात्मा श्री शांतिनाथ प्रभुजी की
काउसग्ग मुद्रा वाली 12 फूट खड़ी अद्भूत प्रतिमाजी
विराजमान है।
यह चमत्कारिक महातीर्थ वर्तमान में भरत क्षेत्र के प्राचीनतम्
महातीर्थों मे से एक माना जाता है।
इतिहास के पन्नों से :- सती रुक्मणी की घटना के साथ इस तीर्थ
की महिमा शुरु होती है, जब वचन में बंधे रुक्मणी के भाई रुक्मी ने
भोजकूट नगर बसाया, जो आज जैन तीर्थ भोपावर में प्रभु
शांतिनाथ के तीर्थ स्थल के रुप में पूरे संसार में अपनी सुगंध बिखेर
रहा है।
महाराजा भीष्मक विदर्भ देश के अधिपति थे, उनके पाँच पुत्र और एक
सुन्दर कन्या रुक्मणी थी। उधर रुक्मणी ने श्री कृष्ण के सौन्दर्य,
पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी तो श्री कृष्ण को मन में
अपना पति मान लिया। श्री कृष्ण भी जानतें थे.. कि रुक्मणी
सौन्दर्य, शील, स्वभाव और गुणों में अद्वितीय है अतः वही अनुरुप
पत्नी है।
रुक्मणी के बड़े भाई रुक्मण कुमार नहीं चाहते थे कि उनकी बहन की
शादी श्री कृष्ण से हो जब की भाई रुक्मरथ, रुक्मवाहु रुक्मेथ तथा
रुक्ममाली की इच्छा थी कि हमारी बहन की शादी श्री कृष्ण से
हो उधर बड़े भाई ने रुक्मणी की शादी शिशुपाल से तय कर दी।
रुक्मणी को जब इस बात का पता चला तो उसने विश्वासपात्र
ब्राह्नण के साथ श्री कृष्ण को संदेश भेजकर अपनी आंतरिक इच्छा से
उन्हें अवगत कराया। इधर पुरातन नगरी कुंडलपुर वर्तमान में अमझेरा के
महाराज भीष्मक भी अपने बड़े पुत्र रुकमी के स्नेहवश अपनी कन्या
का विवाह शिशुपाल से करने हेतु राजी हो गए और विवाह की
तैयारियों में जुट गए।
रुक्मणी अंतःपुर से निकलकर देवीजी के मन्दिर में चली गई। उनके
साथ उनकी सुरक्षा में बहुत से सैनिक भी थे वहां मां अम्बिका का
पूजन-अर्चन कर अपनी मनोंकामना पूर्ण होने का आर्शीवाद
मांगा। उसी समय श्री कृष्ण ने भीड़ में से रुक्मणी को उठाकर अपने
रथ पर बिठा लिया और वहा से चले पड़े।
जब रुक्मणी के बडे भाई रुक्मी को यह बात पता चली तो उन्हें यह
घटना सहन नहीं हुई कि मेरी बहन को श्री कृष्ण हर ले जाए और
राक्षस रीति से बलपूर्वक उसके साथ विवाह कर लें। रुक्मी बली तो
था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ली और श्री कृष्ण का
पीछा किया साथ ही प्रतिज्ञा की कि अगर युद्ध में श्री कृष्ण
को न मार सका और अपनी बहन रुक्मणी को न लौटा सका तो
अपनी राजधानी कुंदनपुर (वर्तमान में अमेझरा) में प्रवेश नहीं करूंगा
बस फिर क्या था। दोनों में घमासान युद्ध हुआ, श्री कृष्ण ने रुक्मी
को जीवित पकड़ लिया। किन्तु बहन रुक्मणी ने रुक्मी की जीवन
भीक्षा मांगकर उसे बचाया। फिर रुक्मी अपनी प्रतिज्ञानुसार
वापस अमझेरा नहीं गए और अपने लिए भोजकूट नगरी बसाई जो आज
भोपावर के नाम से जानी जाती है।
भगवान श्री नेमिनाथ के शासनकाल में श्री कृष्णजी की पत्नी
रुक्मणी के भाई रुक्मणकुमार इस नगर को बसाया था.. प्रमाण स्वरुप
भोपावर से कच्चे रास्ते 10 मील दूरी पर प्राचीन तीर्थ अमझेरा है,
जिसका प्राचीन नाम शास्त्रों में कुन्तलपुर, अम्बिकापुर और
कुन्दनपुर है। कुन्दनपुर प्रभु श्री नेमिनाथ के समय में रुक्मणकुमार की
राजधानी थी। यहाॅ अमका-झमका माताजी के स्थान पर
रुक्मणी का हरण किया था, जहाॅ रथ के निशान आज भी मौजूद है।
इसी भोजकुट नगरी यानि भोपावर नाम से एक नया नगर बसाकर
वहां श्री शांतिनाथ प्रभु की विशाल 12 फुट की काउसग्गधारी
श्याम प्रतिमाजी प्रतिष्ठित कर विशाल जिनालय का
निमार्ण कराया।
अनेक बार आक्रमणों से भी यही तीर्थ गुजरा है किन्तु अनेक हमलों के
बावजूद अधिष्ठायक देवरक्षिुत यह 12 फुट कायोत्सर्ग मुद्रा वाली
प्रतिमा अखण्ड एंव सुरक्षित रही।
कल्पसूत्र के अनुसार भगवान श्री महावीर स्वामीजी और भगवान
श्री नेमिनाथ प्रभु में 84000 वर्ष के समय का अन्तर है, इसमें अगर 2600
वर्ष जोड़ दे तो 86600 अर्थात 87000 वर्ष प्राचीन और
महाप्रभावी श्री शांतिनाथ प्रभु की प्रतिमा है, यह प्रतिमा
भगवान नेमिनाथ के समय की है मूर्ति पर शिलालेख नही है किन्तु
मुर्ति के नीचे हिरण का चिन्ह, मस्तक पर घुघराले बाल का शिल्प
होना तथा प्रतिमा के काले प्राचीन निर्मित होना यह
प्रतिमा की प्राचीनता का दिग्दर्शन कराता हैं।
श्री भोपावर तीर्थ मन्दिर के जीर्णोद्धार के समय जब खुदाई की
गई थी तब अनेक जैन मुर्तिया अखण्ड एंव सुरक्षित निकली। नया
रंग,मण्डप आदि बनाने हेतु जब नीचे खोदा गया तो खोदने पर
विशाल पुराना निचला भाग लाल पत्थर का निकला, उसी के
ऊपर यह नया मंदिर निमार्ण करवाया गया।
यह तीर्थ की अतिप्राचीनता को प्रकट करता है। जीर्णोद्धार के
समय एक जैन अम्बाजी की मूर्ती विराजमान है वह खेत में प्राप्त हुई
थी, जिनालय में काँच की सुन्दर कारीगरी करवाई गयी है, खम्बों
तथा दीवारों पर कथानक चरित्र तथा लेख काँच में अकिंत करवाये
गये।
वि.सं.1978 में पूज्य आगमोद्धारक आचार्य श्री सागरानंद
सूरिश्वरजी म.सा. आदि ससंघ पधारे एंव उनकी प्ररेणा से राजगढ़
निवासी सेठ श्री बागमलजी मगनलालजी तथा रतनलालजी ने इस
तीर्थ के तीर्थाद्वार का कार्य किया उनको मालव भूमि कभी
भूल नहीं सकती।
सं.1983 में मूलनायक प्रभु का लेप कराकर पुनः प्रतिष्ठा देवसुर
तपागच्छ समाचारी संरक्षक आचार्य श्री सांगरानंद सूरिश्वरजी
म.सा.के वरदर्ह्स्त में हुई।
इस तीर्थ में विराजमान श्री शांतिनाथ प्रभु को अजैन एंव
आदिवासी ’’काल्या बाबा’’ के नाम से पुकारते है। वर्तमान में यह
तीर्थ अपने नये स्वरुप में बन गया है।
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