सीता-
सति सीता का परित्याग नहीं हुआ था। वाल्मीकि रामायण के सात कांड और 24000 श्लोक है। लेकिन इसमे उत्तरकांड बहुत बाद में लिखा गया है।वाल्मीकि ने इतना लिखकर रामायण समाप्त कर दी थी कि युद्ध में विजयी होने के बाद अयोध्या पहुंचकर राम ने 11000 वर्ष तक शासन किया।
लेकिन सिर्फ समाज में स्त्रियों और शूद्रों को नीचा दिखाने के लिए बाद में शंबूक वध और सीता का परित्याग जैसी काल्पनिक बातें बाद में उत्तरकांड के नाम से वाल्मीकि रामायण में षड्यंत्रपूर्वक अन्य पंडितों द्वारा जोड़ी गई और इन मनगढ़ंत बातों को सही सिद्ध करने के लिए बालकांड में तृतीय और चतुर्थ सर्ग भी गलत रूप से जोड़े गए थे।
जिस किसी भी विद्वान ने रामायण पूरी पढ़ी है वह उत्तरकांड पढ़ते ही समझ जाता है कि यह वाल्मीकि के लिखने की शैली है ही नहीं।
यह शैली पूर्व के सभी कांड से एकदम भिन्न है ,मध्यकाल में समाज को स्त्री विरोधी और दलितविरोधी दिखाने के लिए और राम का अपयश फैलाने के लिए, षडयंत्रपूर्वक ये मिथ्या बातें रामायण में जोड़ दी गई।
सती सीताजी ने लव-कुश के जन्म के कुछ वर्षो बाद वैराग्य उत्पन्न होने से पृथ्वी साध्वी के पास दीक्षा ली थी,
वाल्मिकी रामायण मे बताया है कि वह पृथ्वी मे समा गयी लेकिन सत्य यह है कि वह पृथ्वी नाम की साध्वीगुरु को समर्पित हो गई थी और मात्र जमी पर केश बच गये इसका मतलब है कि लोच(मुंडन) करने से केवल केश रह गये थे।
फिर सीता साध्वी का जब मरण हुआ तब वे 12 वे देवलोक(स्वर्गलोक) मे इन्द्र बने।
हा, लेकिन,सीता की अग्निपरीक्षा वास्तविक थी।
राम का आदेश था की सीता को स्नान कर, नए वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित कर, उनके समक्ष प्रस्तुत किया जाये, लेकिन जब नये सुसज्जित वस्त्र धारण कर सीता राम के समक्ष पहुंची तब वहां उपस्थित लोगों के मन में सुसज्जित सीताजी को देखकर शंका उत्पन्न होने लगी कि राम के बिना सीता को कोई दुख ही नहीं था। इस शंका का निवारण करने के लिए सीता ने अग्निदेव को प्रकट कर,अग्निपरीक्षा देकर,राम के विरह में प्रतिपल स्वयं की दारुण परिस्थिति को लोगों के समक्ष प्रकट किया।
भगवान राम-
20 वे जैन तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के वक्त अयोध्या में इश्वांकु वंश में जन्मे राम को इसलिए नहीं पूजा जाता कि वे युद्ध में विजयी हुए थे,और एक महान राजा थे बल्कि इसलिए पूजा जाता है कि वे अहिंसक और मर्यादा पुरुषोत्तम थे।श्रीराम ने लक्ष्मण की मृत्यु पर वैराग्य उत्पन्न होने पर, दीक्षा लेकर उसी भव में “सिद्धपद” की साधना करते हुए, केवलज्ञान(पूर्णज्ञान) पाकर,भरत और 3 करोड मुनिवरो के साथ,साधना में लीन होकर ,अपने सभी कर्मों का नाश कर ,मोक्ष प्राप्त किया था।
वे किसी देव के अवतार नहीं थे बल्कि इस कालचक्र के 63 श्लाका उत्तमपुरुषों में कुल 9बलदेवो (नारायण) में से एक थे इसीलिए इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहा जाता है।
रावण-
रावण राक्षस नही थे, इसलिए तो सीता के स्वयंवर में उन्हें भी आमंत्रित किया गया था,राक्षस शब्द का अर्थ "खराब" नही था,राक्षस उनके वंश का नाम था,, रामायण के बाद राक्षस शब्द का अर्थ "खराब लोग" एसा कर दिया गया,विभिषन भी राक्षस वंश के ही नेक इंसान थे।
रावण के गले में 9 मोतियों की माला थी जिन सभी मोतियों में उसका प्रतिबिंब दिखता था इसीलिए रावण को दशानन भी कहा जाता था।
रावण के भाई कुंभकर्ण और पुत्र मेघनाध की भी युद्ध मे मृत्यु नही हुई थी बल्कि उन दोनो ने दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया था, सुग्रीव ने भी मोक्ष प्राप्त किया था।
सीता के जीव (इन्द्र)ने, देवलोक(स्वर्ग) में रहते हुए, श्रीराम को जब साधना में लीन देखा. तब श्रीराम के साथ “धर्मचर्चा” करने की इच्छा जागी।
देवलोक(स्वर्ग) से पुन: सीता का रूप धारण करके उन्हें उपसर्ग किया( साधना में विघ्न डाला) ,ताकि राम को मोक्ष ना हो,वे भी देवलोक में जन्म लेकर सीता के मित्र बन जाये, किन्तु श्रीराम विचलित नहीं हुए. श्रीराम ध्यान में आगे बड़े….और “केवलज्ञान” पाया.
तब इन्द्र(सीता के जीव) ने राम से माफ़ी मांगी और लक्ष्मण और रावण के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की।
श्रीराम ने बताया कि लक्ष्मण “चौथी नरक” में है और रावण “तीसरी नरक” में है।
चूँकि कोई भी देव तीसरी नरक से आगे नहीं जा पाता इसलिए “देव” (सीता) ने तीसरी नरक जाकर रावण को प्रतिबोध दिया.
आगे के भव:
1.लक्ष्मण और रावण दोनों नरक से निकलकर मनुष्य और जानवरों के अनेक भव करते हुवे हर बार एक दूसरे को मारेंगे. इसलिए बार-बार नरक में जाएंगे. अंत में नरक से निकलकर (कर्म भोगकर) सगे भाई बनेंगे जिनमें अत्यंत प्रेम होगा.
2. फिर देवलोक(स्वर्गलोक) में उत्पन्न होंगे.
3. फिर साथ में “मनुष्य” का जन्म लेंगे.
4. फिर देवलोक में
5. फिर साथ में राजकुमार के रुप में मनुष्य भव पाकर दोनों मुनि बनेंगे।
6. फिर साथ में 7वे देवलोक में जन्म लेंगे।
7. अब “सीता” का जीव “भरत क्षेत्र” में “चक्रवर्ती राजा” बनेगा. रावण और लक्ष्मण के जीव उनके “इंद्ररथ” और “मेघरथ” नाम के पुत्र राजकुमार बनेंगे*
8. तीनों मरकर अनुत्तर विमान देवलोक में अहींद्र(देव) होंगे.
9. वहां से निकलकर “रावण” तीर्थंकर और “सीता” का जीव उनका “गणधर(प्रमुख शिष्य) बनेगा।
लक्ष्मण का जीव “घातकी खंड” में चक्रवर्ती के साथ “तीर्थंकर” बनेगा.
10.जैन धर्म मे लक्ष्मण और रावण का जीव भविष्य के अरिहंत परमात्मा के रूप में "नमो अरिहंताणं" पद से पूजा जाता है।
और श्रीराम का जीव भूतकाल के और सीता का जीव भविष्यकाल के सिद्ध परमात्मा के रूप में "नमो सिद्धाणं" पद से पूजा जाता है।
विशेष:
“रावण” ने “कुबेर” की महारानी “उपरंभा”को वापस भेज दिया था लेकिन वही “शीलवान रावण” सीता के रूप के धआगे हार गया था।
वाल्मीकि रामायण में राम का युद्ध में विजयी होने तक का ही वर्णन हमें मिलता है लेकिन इसके बाद की वास्तविक कथा हमें प्राचीन जैन रामायण में मिलती है।
रामसेतु के सच होने के सबूत-
श्रीराम की सेना पत्थरो का पुल बनाकर रामसेतु के माध्यम से श्रीलंका गई थी। केरल के दक्षिण में रामेश्वर द्वीप को श्रीलंका के उत्तर में मन्हार द्वीप से जोड़ता हुआ 30 किलोमीटर लंबा खंडित पुल, समुंद्री पानी में कुछ फीट नीचे आज भी मौजूद है, जो अमेरिका की NASA की सेटेलाइट द्वारा ढूंढा गया है।
इतना ही नहीं,इन दोनों द्वीपों के तट पर कई वजनदार भारी बड़े प्युमिक पत्थर भी मिले हैं जो पानी पर तैरते हैं।
जैन धर्म में हनुमान-
जैन धर्म में 63 शलाकापुरुष के अलावा 24 कामदेव भी होते हैं,हनुमान वही कामदेवों में से एक थे।
हनुमान की माता का नाम अंजना और पिता का नाम पवनगति/पवंजय था। पवनगति किसी कारण से वर्षों तक बाहर थे लेकिन जब उन्हें अपनी पत्नी अंजना की याद आई तब वे अपनी पत्नी से मिलकर एक ही रात में दोबारा चले गये। जब अंजना गर्भवती हुई तो उसकी सासु इंदुमती ने अंजना पर चारित्रहिनता का कलंक लगाकर, अपमानित कर उसे घर से बाहर निकाल दिया।
जब अंजना अपने पिता महेंद्र राजा के पास गई तब राजा महेंद्र ने भी उसे अपमानित कर अपने महल में शरण नहीं दी।जिस कारण उसे जंगलों में जाना पड़ा।
अंजना ने अपने कर्मों का उदय मानकर समता धारण की और जंगल में एक शिशु को जन्म दिया।यह पवित्र जन्मस्थान आंध्रप्रदेश के तिरुमला सात पहाड़ियों में से एक पहाड़ है।
शिशु के जन्म पर एक दिव्य रोशनी प्रकट हुई जिस रोशनी के कारण आकाश में उड़ रहे एक विमान की गति अवरुद्ध हो गई, जिसकारण उस विमान में जो राजा बैठे थे वे जब नीचे उतरे तो वे अंजना के मामा थे। फिर जब मामा ने अंजना को प्रमाण मिलने पर पहचाना, तब अंजना को अपने साथ विमान मे बिठाकर अपने महल ले जा रहे थे, तब रास्ते में विमान से शिशु नीचे हनुराह नगर में एक शिला पर गिर गया।शिशु के शिला पर गिरने से वह शिला टूट गई,हनुराह नगर में यह घटना होने से उस शिशु का नाम हनुमान रखा गया।
जैन रामायण अनुसार हनुमान,सुग्रीव, नल,नील,महानील,बाली,गवय,गवाक्य ये सभी वानर नही थे,मात्र उनके वंश का नाम वानर था, और उनके ध्वज पर भी वानर का चिन्ह था।हा,उन्होने लंका को पुछ से जलाने के लिये वानर रूप धारण किया था|
लेकिन विदेशों में जब रामायण पहुंची तो वहां हनुमानजी को वानर वंश के नाम से मंकी गोड के रूप में पूजा जाने लगा। और फिर पुराणों में भी हनुमान का बंदर होना और सर्य को निगल जाना जैसी काल्पनिक कथाएं लिखी गई।
लेकिन
जैन धर्म अनुसार हनुमान भी महापुरुष थे ,वे दीक्षा लेकर साधु बने थे ,उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ था।
वे सिद्ध परमात्मा है और जैन धर्म में वे नमो सिद्धाणं पद से पूजे जाते हैं।
विशेष-
नासा के वैज्ञानिक राम के ग्रह-नक्षत्र की स्थति के आधार पर राम के जन्म का काल 7000 वर्ष पूर्व बताते हैं लेकिन यह काल गलत है।
तुर्की में 10,000 वर्ष प्राचीन हनुमान जी की प्रतिमा मिली है।और महाभारत जो रामायण के बाद की घटना है उममे भी श्रीकृष्ण की अरबसागर में लुप्त द्वारिका नगरी की कार्बन डेटिंग भी 12000 वर्षो से भी ज्यादा प्राचीन है।जिससे यह सिद्ध होता है रामायण लाखों वर्ष प्राचीन घटना है।
सम्पुर्ण रामायण और महाभारत कोई लीला नही बल्कि कर्मो के अधीन जीवन घटना है। विस्तार से जानने के लिए जैन रामायण अवश्य पढ़ें।
हनुमान की वानररुप प्रतिमा भी तुर्की में ही मिली है, लेकिन अभी तक एक भी देवी-देवता की इस प्रकार की प्रतिमा भारत में नही मिली है, भारत में मात्र साधना कर रहे सिद्ध/अरिहंत परमात्मा की ही प्राचीन प्रतिमा खुदाई में प्राप्त होती है, इससे यह माना जाता है कि हनुमान जी को वानर रुप में माना जाना पश्चिमि सभ्यताओं की देन हैं।जब वहा देवी-देवताओं की मूर्तिपूजा का प्रचलन अधिक था।कई इतिहासकार मानते हैं कि भारत में देवी-देवताओ की मूर्तिपूजा और यज्ञ ये सभी ईरान से भारत आए हैं। भारत में कई तीर्थंकरों की प्राचीन प्रतिमाओं को वस्त्राभूषणो से सजाकर, सिंदूर लगाकर देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता है।आज भी बद्रीनाथ , कैदारनाथ जैसे कई देवी-देवताओ के मन्दिरों की दिवारो पर जैन तीर्थंकर की प्राचीन प्रतिमाए अंकित मिलती है,जो यह सिद्ध करते है कि ये सभी प्राचीन काल में जैन मंदिर थे।
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