श्री सालासर बालाजी कथा, महिमा व मन्दिर का इतिहास
Salasar Balaji Temple Rajasthan History and Katha in Hindi : राजस्थान के चूरू जिले की सुजानगढ़ तहसील के सालासर नामक स्थान पर लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र हनुमानजी का प्रसिद्ध मन्दिर है। गांव के नाम पर इन्हें सालासर बालाजी कहा जाता है। इस मन्दिर की स्थापना रूल्याणी ग्राम के संत श्री मोहनदासजी ने की थी।
श्री सालासर बालाजी की महिमा व मन्दिर का इतिहास (Salasar Balaji Temple History)
मेलों की नगरी सालासरधाम
राजस्थान का सालासर धाम मेलों की नगरी है। यहाँ सिद्धपीठ बलाजीमंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं का प्रत्येक शनिवार, मंगलवार व पूर्णिमा को मेला लग जाता है। चैत्र, आश्विन और भाद्रपद महीनों में शुक्लपक्ष की चतुर्दशी व पूर्णिमा को तो विराट मेले लगते हैं।
सालासर के हनुमानजी श्रद्धालुजनों में ‘ श्रीबालाजी ‘ नाम से लोकप्रिय है। हनुमान जयन्ती आदि के मेलों के अवसर पर विशेष दर्शन हेतु देश के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्त श्रीसालासर-बालाजीधाम की ओर चल पड़ते हैं। कोई पैदल चलता है, कोई पेट के बल सरकते हुए आगे बढ़ता है तो कोई कदम कदम पर साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए। कोई ऊँटगाड़ी पर, कोई रेलगाड़ी पर तो कोई बस, जीप, कार आदि द्वारा प्रेम की डोर में बँधे खिंचे चले आते हैं। यों लगता है मानो सालासर एक समुद्र है जिसमें भक्तों की टोलियाँ नदियों के समान प्रविष्ट हो रही हैं। चारों ओर लहराता जनसमूह, जय बालाजी के गगनभेदी जयकारे, मन्दिर में बजते नगाड़ों और घण्टा-घड़ियालों की समवेत ध्वनि, पंक्तिबद्ध खड़े दर्शनार्थियों की उत्कण्ठा और उत्साह इस धाम की विलक्षणता के सूचक हैं।
श्री सालासर बालाजी का स्वरूप
बालाजी के दर्शन की प्रतीक्षा में लड्डू, पेड़ा, बताशा, मखाना, मिश्री, मेवा, ध्वजा-नारियल आदि सामग्री हाथ में लिए लम्बी घुमावदार कतार में खड़े दर्शनार्थी बारी आने पर ज्यों ही मन्दिर में प्रवेश करते हैं, बालाजी की भव्य प्रतिमा का दर्शन कर भावमुग्ध हो जाते हैं। अद्भुत स्वरूप है बालाजी का जो अन्यत्र अलभ्य है। सिन्दूर से पुती मूलप्रतिमा पर वैष्णव सन्त की आकृति बनी है। माथे पर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक, झुकावदार लम्बी भौंहें, घनी दाढ़ी-मूंछें, कानों में कुण्डल, एक हाथ में गदा और दूसरी में ध्वजा और दर्शकों के हृदय की गहराई तक झाँकती सुन्दर आँखें ; यह है बालाजी का विलक्षण स्वरूप। प्रतिमा का मूलरूप तो कुछ और ही था। उसमें श्रीराम और लक्ष्मण हनुमानजी के कन्धों पर विराजमान थे। बालाजी का यह वर्तमान रूप तो सन्तशिरोमणि मोहनदासजी की देन है।
बालाजी ने मोहनदासजी को सर्वप्रथम दर्शन एक वैष्णव सन्त के रूप में ही दिए थे। बालाजी का स्वभाव ही ऐसा है, सर्वप्रथम दर्शन वेश बदलकर ही देते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी को कोढ़ी के वेश में उनके दर्शन मिले थे। भगवान श्रीराम से मिले तो विप्रवेश में। मोहनदासजी के हृदय में प्रथम दर्शन का प्रभाव कुछ ऐसा पड़ा कि वह उनके मन-मस्तिष्क में स्थायी रूप से अंकित हो गया। उन्हें ध्यानावस्था में भी उसी रूप में दर्शन होते। बार- बार देखे गये उस रूप में इतनी अनन्यनिष्ठा हो गयी कि उन्हें दूसरा कोई रूप स्वीकार ही नहीं था। बालाजी तो भक्त की मनचाही करते हैं। उनकी अपनी कोई इच्छा होती ही कहाँ है, सो बालाजी ने भी भक्त की पसन्द का रूप धारण कर लिया। सालासर में यही उनका स्थायी रूप बन गया है।
श्री सालासर बालाजी का मुख्य भोग
बालाजी भी कम कौतुकी नहीं हैं। वे बोले- जब रूप प्रथम दर्शन वाला है तो भोग भी प्रथम दर्शन वाला ही होना चाहिए। बचपन में मोहनदासजी जब रुल्याणी के बीड़ (गोचरभूमि) में गायें चरा रहे थे तब बालाजी ने उन्हें सर्वप्रथम दर्शन एक वैष्णव सन्त के रूप में दिए थे। उस समय मोहनदासजी ने उन्हें मोठ-बाजरे की खिचड़ी भोग के लिए अर्पण की थी, जो माँ ने दोपहर के भोजन के लिए उनके साथ भेजी थी। सन्तवेशधारी बालाजी ने बड़े चाव से उस खिचड़ी को पाया था। प्रेम से अर्पित उस खिचड़ी का स्वाद वे भूले नहीं थे। बालाजी प्रेम के ही तो भूखे हैं। केवल प्रेम से ही भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश मिलता है। प्रेम का स्पन्दन तरंग की भांति आराध्य के हृदय को स्पर्श तथा प्रभावित करता है। मोहनदासजी द्वारा अर्पित मोठ-बाजरे की वह खिचड़ी सालासर के बालाजी का स्थायी भोग बन गयी। वह परम्परा आज भी कायम है। मेवा-मिष्ठान्न के साथ बालाजी की तृप्ति के लिए मोठ-बाजरे की खिचड़ी का विशेष भोग जरूर लगाया जाता है। भक्त और इष्टदेव का यह भावनात्मक संबंध ही सालासर के बालाजीधाम की विलक्षण विशेषता है।
सालासर बालाजी मन्दिर धाम के कुछ चित्र Salasar Balaji Temple Photos :-
श्री सालासर बालाजी मन्दिर का निर्माण
सालासर के बालाजीमन्दिर का निर्माण मोहनदासजी द्वारा संवत 1815 में कराया गया था। मन्दिर के परिसर में मौजूद उनके स्मृतिचिह्न उनकी श्रद्धा, भक्ति, सेवा और समर्पण की मौनकथा कहते हैं। भक्तों ने उनकी स्मृति को संजोकर रखा है।
मोहनदासजी का धूणा व कुटिया
मन्दिर के पास ही मोहनदासजी का धूणा है जहाँ बैठकर वे ध्यान-साधना और तपस्या किया करते थे। यह अभी तक अखण्डरूप से प्रज्वलित है। मन्दिर का अखण्डदीप भी सर्वप्रथम उनके द्वारा ही प्रज्वलित किया गया था। धूणे के पास ही उनकी कुटिया थी, जिसे अब पक्का कमरा बना दिया गया है। उसमें उनकी प्रतिमा भी प्रतिष्ठापित कर दी गई है। सालासर आने वाला भक्त बालाजी के दर्शन के बाद कुटिया में मोहनदासजी के दर्शन कर धूणे की विभूति साथ जरूर ले जाता है।
मोहनदासजी का समाधिस्थल
धूणे से थोड़ी दूर सामने की दिशा में मोहनदासजी का समाधिस्थल है जहाँ उन्होंने जीवित समाधि ली थी। समाधिस्थल पर मोहनदासजी के चरणचिह्न (पगल्या) हैं। पास ही छतरी में उनकी बहन कान्हीबाई के चरणचिह्न भी स्थापित हैं। मोहनदासजी और कान्हीबाई के ये चरणचिह्न भाई-बहन के उस दिव्य शाश्वत प्रेम के प्रतीक हैं, जिसने एक ढाणी (छोटे ग्राम) सालासर को ‘सिद्धपीठ सालासरधाम’ के रूप में विकसित कर दिया। भाई-बहन के प्रेम ने ही तो रक्षाबन्धन जैसे पावन पर्व को जन्म दिया है। प्रेम के इस रक्षाबन्धन में बंधे हुए ही मोहनदासजी रूल्याणी की अपनी सम्पत्ति त्याग कर विधवा बहन और भानजे के संरक्षण के लिए सालासर आ गये। विरक्त सन्त होने के बाद भी वे उनकी देखरेख को अपनी अध्यात्म-साधना का अभिन्न अंग बनाये रहे। सालासर में गूंजने वाला प्रत्येक जयकारा उनके सेवा-संकल्प के वचन की ही प्रतिध्वनि है, जो उन्होंने रूल्याणी से सालासर प्रस्थान करते समय लिया था। उस वचन को निभाने के लिए मोहनदासजी अपना सर्वस्व त्यागकर सालासर आ बसे थे। सालासर उनकी कल्पना का सेवतीर्थ है, जहाँ सुयोग्य उत्तराधिकारियों ने विविध सेवाप्रकल्पों से उनके सेवाव्रत को जारी रखा है। खारे जल वाले इस गाँव में तालाब खुदवा कर सेवाप्रकल्पों की परम्परा का प्रवर्तन तो उन्होंने स्वयं ही कर दिया था।
मोहनदासजी का पैतृक गाँव रुल्याणी सालासर से मात्र 16 मील की दूरी पर स्थित है। सालासर-सीकर सड़क मार्ग पर काछवा गाँव है। वहाँ से रूल्याणी के लिए सड़क जाती है। काछवा से रूल्याणी की दूरी मात्र 6 किलोमीटर है। चूनाबाबा द्वारा जीवित समाधि लेने के बाद इसे चूनाबाबा की रुल्याणी भी कहा जाने लगा है। (सिद्धसन्त चूनाबाबा ने सम्वत 1967 में रुल्याणीनिवासी चोखारामजी और राधाबाई के पुत्र रूप में जन्म लिया। वे बचपन से ही भगवान के भक्त व विरक्त थे। पुत्र सन्यासी न हो जाये, इस आशंका से पिता ने छोटी आयु में उनका विवाह कर दिया, पर वे घर-गृहस्थी से विमुख रहकर अध्यात्मसाधना में ही लीन रहे। उनके सत्संग से उनकी पत्नी धापूदेवी को भी लौकिक सुखों से वैराग्य हो गया। चूनाबाबा 30 वर्ष की आयु में सन्त आदूरामजी से दीक्षा लेकर सेवा और भक्ति से जीवन बिताने लगे। उन्होंने 68 वर्ष की आयु में सम्वत 2035 में आश्विन शुक्ला द्वितीया सोमवार के दिन जीवित समाधि ली। इस तिथि को प्रतिवर्ष समाधिस्थल पर विराट मेला लगता है।)
रुल्याणी के पास ही सेवदड़ा गाँव है। मोहनदासजी के जन्म के समय सेवदड़ा में कासलीनरेश राव जगतसिंह के पुत्र राव पहाड़सिंह का शासन था। रुल्याणी गाँव उनकी जागीर में था। राव पहाड़सिंह जयपुरनरेश सवाई जयसिंह के मनसबदार थे। मोहनदासजी के पिताजी पंडित लच्छीरामजी पाटोदिया का सेवदड़ा के राजपरिवार में अच्छा सम्मान था।
श्री सालासर बालाजी की कथा
आत्मनिवेदन
सन्तशिरोमणि मोहनदासजी की हनुमद्भक्ति और उनके द्वारा सालासर में श्रीबालाजी मन्दिर की स्थापना की कथावस्तु पर आधारित पुस्तक ‘श्री सालासर बालाजी कथा ‘ की रचना कर इसे आप तक सुलभ पठनीय बनाने के लिए इसे यहाँ अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। सन्त-शिरोमणि मोहनदासजी भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि महापुरुष थे। उनके व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं। और प्रत्येक पक्ष अपने आप में अनूठा है। वे भगवान श्रीराम और हनुमानजी के अनन्य भक्त थे। भक्ति के संस्कार उनमें जन्मजात थे, जो उत्तरोतर विकसित होते गये। सेवा, परदुःखकातरता, हृदय की कोमलता, विद्वता, कवित्व आदि गुण उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व को उजागर करते हैं। यद्यपि कुछ उत्साही व्यक्तियों ने उनके जीवनचरित को प्रकाश में लाने का प्रयास किया किन्तु व्यापक अनुसन्धान के अभाव में ये प्रयास समग्र रूप से सफल नहीं हो सके।
इतिहास का अध्येता होने के कारण यह शोधकार्य मेरे लिए स्वाभाविक रुचि का विषय है। श्रीमोहनदासजी के व्यक्तित्व और कृतित्व से सम्बंधित तथ्यों का अन्वेषण व समीक्षा कर उन्हें कथा रूप में निबद्ध कर प्रस्तुत करने का दायित्व मुझे दिया गया तो मैंने इसे अपना अहोभाग्य माना। अब यह कथा भेंट के रूप में आपको अर्पित है।
यह पुस्तक ऐतिहासिक गद्य-काव्य है। इतिहास का प्रयोजन घटनाओं को यथावत प्रस्तुत करना होता है। काव्य में घटनाओं की प्रस्तुति इस प्रकार होती है कि उसे पढ़ने-सुनने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के फल की प्राप्ति हो जाती है।
यह कथा दो भागों प्रथम चरित्र और उत्तर चरित्र में विभक्त है। प्रथम चरित्र में कथानायक के सालासर-गमन से पूर्व का जीवन चरित्र वर्णित है और उत्तर चरित्र में सालासर जाने के बाद का। उनके जीवन की घटनाओं संकलन में जिन महानुभावों का सहयोग मिला, उनके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ। इस कथा के सम्बन्ध में आपकी सम्मति व सुझाव आप कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं। आपके विचार प्रेरणास्रोत सिद्ध होंगे।
विनीत :- संजय शर्मा
प्रथम चरित्र
रुल्याणीनिवासी पं. लच्छीरामजी पाटोदिया रामभक्त दाधीच ब्राह्मण थे। भक्ति के संस्कार उन्हें वंशपरम्परा से प्राप्त हुए थे। उनके दादा पं. सदारामजी रैवासा की अग्रपीठ के संस्थापक श्री अग्रदेवाचार्यजी के कृपापात्र और सेवानिष्ठ अनुयायी थे। अग्रपीठ प्रारम्भ से ही रामानन्द सम्प्रदाय का उत्तरी भारत का प्रमुख केन्द्र रहा है। जगद्गुरु आचार्य रामानन्द के शिष्य अनन्तानन्द के दो प्रमुख शिष्य थे – नरहरिदास और कृष्णदास पयहारी। नरहरिदास के शिष्य गोस्वामी तुलसीदास तथा कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदास थे। गुरु की आज्ञा से अग्रदास ने रैवासा में अग्रपीठ की स्थापना की। तब से अग्रदास का नाम आचार्य अग्रदेव हुआ। आचार्य अग्रदेव हनुमानजी के परमभक्त थे। जब वे रैवासा में कठोर तपस्या कर रहे थे, तब माता जानकीजी ने उन्हें दर्शन देकर उपदेश दिया था कि भक्ति के आचार्य रामदूत हनुमानजी हैं। उनकी आराधना से भगवत्कृपा की प्राप्ति शीघ्रता और सुगमता से होती है। आचार्य अग्रदेव ने रैवासा में उस स्थान पर एक वाटिका लगायी जहाँ उन्हें माता जानकीजी के दर्शन हुए थे। उन्होंने जानकीनाथजी तथा हनुमानजी के मन्दिरों का निर्माण कराया। वे नगर-नगर, गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी भ्रमण करते हुए परमपिता भगवान श्रीराम और रामदूत हनुमान की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।
एक बार पं. सदारामजी डीडवाना जागीर के दयालपुरा गाँव में एक सेठजी के घर नवरात्र का अनुष्ठान कर रहे थे। उसी समय स्वामी अग्रदेवाचार्यजी सन्तमण्डली के साथ भक्तिप्रचार करते हुए दयालपुरा पहुँचे। पं. सदारामजी स्वामीजी के तपोबल व भक्तिसाधना की महिमा से परिचित थे। उन्होंने अपने यजमान सेठजी से कहा कि स्वामीजी महान तपस्वी और भक्त हैं। वे सकलकामनाहीन हैं। भगवान की प्रसन्नता और जनता के कल्याण के लिए भगवान का गुणगान करते रहना ही उनके जीवन का लक्ष्य है। वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं पाँच ईंटें आड़ी-तिरछी रखकर हनुमानजी की स्थापना कर देते हैं। बाद में वहां ग्रामीण रघुनाथजी का मन्दिर या हनुमानजी का बुंगला (छोटा मन्दिर) बना देते हैं। इस प्रकार इनकी भक्तियात्रा में जहाँ-जहाँ विश्राम हुआ वहीं रामदूत हनुमानजी के मन्दिर बन गये हैं। नगरों और बड़े गाँवों में रघुनाथजी के मन्दिर भी बन गये हैं। हमारे सौभाग्य से उनकी भक्ति-यात्रा का विश्राम दयालपुरा में हुआ है। ऐसे महान सन्त का दर्शन और उनके उपदेश सुनने का अवसर बड़े भाग्य से मिलता है।
यह सुनकर सेठजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे श्रद्धालु तथा धर्मनिष्ठ थे। उन्होंने सन्तों के आवास-भोजन तथा सत्संग की बड़ी उत्तम व्यवस्था कर दी। स्वामीजी का जैसे ही दयालपुरा में पदार्पण हुआ, सेठजी और पण्डितजी के साथ ग्रामीण उनकी अगवानी के लिए तैयार मिले। विश्राम हेतु सम्पूर्ण व्यवस्था तैयार थी । भोजन व विश्राम के बाद भजन-कीर्तन व प्रवचन की तैयारी हुई। स्वामीजी ने अपने शिष्य नाभादास को पांच ईंटें लाने की आज्ञा दी। सेठजी ने हवेली से पांच ईंटें मंगवाकर नाभादासजी को दीं। स्वामीजी ने एक जाँटी (खेजड़ी) के पेड़ के नीचे दो ईंटें जमीन पर रखकर उन पर दो ईंटें खड़ी कर उनके सिरे आपस में मिला दिए। पाँचवीं ईंट को पीछे रखकर मन्दिर का प्रतीकात्मक रूप बना दिया। एक छोटे से तिकोने पत्थर पर सिन्दूर लगाकर उस मन्दिर में विराजमान कर दिया। मन्दिर के सामने हनुमानचालीसा के 108 पाठ सामूहिक रूप से किये गये तथा प्रसाद का वितरण किया गया।
अगले दिन प्रवचन का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। पं. सदारामजी नवरात्रपूजन पूर्ण हो जाने पर भी प्रवचन व भजन-कीर्तन आनन्द लेने के लिए दयालपुरा ही रुके हुए थे। दयालपुरा गाँव भक्तिरस में सराबोर हो रहा था। शाहपुरा, रुल्याणी, मावा, ललासरी आदि आस-पास के गाँवों से भी ग्रामवासी सत्संग में आ रहे थे। स्वामीजी उस समय श्रीरामप्रपत्ति नामक ग्रन्थ की रचना कर रहे थे इसलिए उनके प्रवचन का विषय भी प्रपत्ति (शरणागति) ही था। भगवान श्रीराम की शरणागति की महिमा बताते हुए वे बोले कि भगवान श्रीराम साक्षात् परं ब्रह्म हैं। योगी ध्यानसाधना द्वारा उनमें रमण करते हैं, इसलिए परंब्रह्म को राम कहा जाता है। रामतापनीयोपनिषद् का वचन है –
रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि।
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ।।
सीता, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उस परंब्रह्म की शक्तियों के विविध व्यक्त रूप हैं। ॐकार विविध शक्तियों से युक्त परंब्रह्म श्रीराम वाचक है। ॐ के पाँच अवयव हैं – अ, उ, म, अर्धमात्रा तथा नादबिन्दु। ये क्रमशः लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भरत, राम, तथा सीता के वाचक हैं। इस प्रकार ॐ से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता रूप श्रीरामपञ्चायतन की अभिव्यक्ति होती है।
उस परब्रह्म राम की शरणागति को ही प्रपत्ति कहते हैं। जब जीव अपने-आपको सब प्रकार से अशक्त और निरुपाय समझकर भगवान् को ही उपायरूप से वरण करता है तो जीव की इस प्रवर्ति को प्रपत्ति कहा जाता है। इसमें उपेय ही उपाय है। यही सब साधनों का सार है। इसके 6 प्रकार हैं –
- अनुकूलता का संकल्प– जिन कार्यों से प्रभु प्रसन्न हों, उन्हें अवश्य करना।
- प्रतिकूलता का त्याग– जिन कार्यों से प्रभु प्रसन्न ना हों, उन्हें बिलकुल नहीं करना।
- रक्षा का विश्वास– मन में यह विश्वास रखना की प्रभु मेरी रक्षा करेंगे ही।
- रक्षक का वरण– एक मात्र प्रभु को ही अपना रक्षक मानना।
- अकिंचनता– सब कुछ भगवान् का ही है, मेरा कुछ नहीं यह दृढ़ धारणा।
- आत्मनिक्षेप– जो कुछ प्रभु ने दिया है, वह उनको अर्पण कर देना तथा में भगवान् का ही हूँ यह भावना रखना।
यह 6 प्रकार की शरणागति ही भक्ति का मूल आधार है।
भक्ति का यह सरल और सुगम स्वरूप जानकर श्रोता मुग्ध हो गए। भगवन्नामकीर्तन के साथ ही प्रवचन सम्पन्न हुआ।
जब स्वामीजी ने अगले दिन आगे के लिए प्रस्थान करना चाहा तो सेठजी ने विनम्रतापूर्वक अनुरोध कर उन्हें कुछ दिन और प्रवचन के लिए रोक लिया। अब ओ भक्तिरस की अखण्डधारा बहने लगी। प्रतिदिन हनुमानजी की पूजा-आरती होती। उसके बाद श्रीअग्रदेवरचित हनुमान अष्टक तथा तुलसीदासकृत हनुमानचालीसा का पाठ होता। तत्पश्चात् कथा-प्रवचन व भगवन्नाम-कीर्तन होता।
एक दिन पं. सदारामजी ने पूछा स्वामीजी! रामभक्ति में हनुमानजी की आराधना की क्या महिमा है ? समझाने की कृपा करें। स्वामीजी बोले- भगवान् श्रीराम और माता सीताजी हनुमान को पुत्र मानते हैं इसलिए हनुमानजी की भक्ति से वे परम प्रसन्न होते हैं। हनुमानजी भक्ति के आदि आचार्य हैं। उन्हें स्वयं माता जानकीजी ने राममन्त्र का उपदेश दिया है इसलिए भगवान्श्रीराम और सीतामाता की प्रसन्नता के लिए हनुमानजी की आराधना आवश्यक है।
पण्डितजी ने पूछा-स्वामीजी ! प्रपत्ति के अधिकारी कौन हैं ?
स्वामीजी ने उत्तर दिया –
सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः शक्ता अशक्ताः पदयोर्जगत्प्रभोः।
नापेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो चापि कालो नहि शुद्धतापि वा ।।
प्रवचनामृत के आनन्द से सेठजी तृप्त होते ही न थे। इस प्रकार एक माह बीत गया, तब स्वामीजी ने आगे प्रस्थान करने का निश्चय किया। प्रस्थान की तैयारी चल ही रही थी कि सेठजी के घर एक अनहोनी घटना घट गयी। सेठजी के पुत्र को सर्प ने डस लिया। बिलखते हुए सेठजी स्वामीजी के चरणों में लोट गये। स्वामीजी ने ध्यान लगाया तो पता चला कि सेठजी के पुत्र की आयु समाप्त हो चुकी थी। सर्प का डसना तो निमित मात्र था। सेठजी की अनुपम श्रद्धा-भक्ति व इस विपत्ति के कारण स्वामीजी का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने भगवान श्रीरघुनाथजी से सेठजी के पुत्र की आयु बढ़ा कर उसे जीवित करने की प्रार्थना की। भक्त का अनुरोध टालना भगवान के वश की बात नहीं, भले ही अनुरोध को पूरा करने के लिए भावी को टालना पड़े। स्वामीजी की कल्याणमयी प्रार्थना से सेठजी के पुत्र को जीवनदान मिला। प्रार्थना की शक्ति अपार है।
सेठजी ने रघुनाथजी का मन्दिर बनाने का संकल्प कर लिया। नींव के मुहूर्त के बाद ही स्वामीजी आगे के लिए प्रस्थान कर सके। इस घटना ने पं. सदारामजी की जीवनधारा ही बदल दी। उन्होंने भक्ति की जिस महिमा को प्रवचनों में सुना था उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी देख लिया था। अब उनका अधिकांश समय भगवान के स्मरण और कीर्तन में ही बीतने लगा। घर का दायित्व पुत्र हरनाथ को सौंपकर वे प्रायः रैवासा चले जाते। रामनवमी, जन्माष्टमी, हनुमानजयन्ती आदि उत्सवों पर तो वे रैवासा ही रहते। इस प्रकार उनका मन सब ओर से भगवान में ही लगा रहता था। भगवान में लगा मन स्वतः निर्मल हो जाता है।
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पण्डित हरनाथजी का जीवन भी भक्तिभाव में ही बीता। वे घरेलू कार्यों से समय निकाल कर अग्रपीठ चले जाते। वहाँ सन्तसमागम और हरिकथा का आनन्द प्राप्त करते। उनका जीवन गृहस्थ सन्त की तरह ही बीता। हरनाथजी के पुत्र लच्छीरामजी को भक्ति के ये संस्कार विरासत में मिले। वे दादा और पिता के चरणचिह्नों पे चल के जीवन को कृतार्थ करने लगे । वे रुल्याणी ही नहीं आस-पास के गाँवों में भी एकमात्र शास्त्रनिष्णात पण्डित थे। रेवासा अग्रपीठ में आने वाले सन्तों और पण्डितों की संगति के कारण उनका वैदुष्य निखर गया। तेजस्वी चेहरा, लम्बा पुष्ट शरीर, ललाट पर सिन्दूर का तिलक, कन्धों को छूती लम्बी शिखा और कन्धों पर रामनामी दुपट्टा उनके व्यक्तित्व को विशिष्ट पहचान देते थे। आकृति के अनुरूप उनका स्वभाव भी एकदम मृदुल था। वाणी से अमृत बरसता था। विवाह, हवन, पूजन आदि के लिए दूर-दूर तक के गाँवों में उन्हें बुलाया जाता था। सम्वत् 1766 में सेवदड़ा के जागीरदार राव पहाड़सिंह का विवाह हुआ तो विवाह-संस्कार कराने उन्हें ही आमन्त्रित किया गया।
पण्डित लच्छीरामजी की पत्नी गायत्री का स्वभाव भी पति के अनुरूप ही था। उनके घर छह पुत्रों और एक पुत्री ने जन्म लिया। सबसे छोटा मोहनदास था। पुत्री कान्ही मोहनदास से बड़ी तथा अन्य भाईयों सीताराम, मंसाराम और मोतीराम आदि से छोटी थी। कान्ही के बड़े भाईयों के विवाह हो चुके थे। कान्ही भी विवाह के योग्य होने लगी थी। पण्डितजी ने उसके लिए श्रेष्ठ लड़के की खोज शुरू कर दी थी।
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मोहनदासजी का व्यक्तित्व बचपन से ही विलक्षण था। उनके जन्मकाल की ग्रहस्थिति, शुभ शकुनों व सामुद्रिक लक्षणों के द्वारा पण्डितजी ने जान लिया कि यह बालक बड़ा होकर सन्त बनेगा। बालक की मुखमुद्रा अत्यन्त मनमोहिनी थी। कान्ही का एकमात्र छोटा भाई होने के कारण उसे मोहन भैया से विशेष लगाव था। वह दिन भर उसी में रमी रहती। कभी उसे गोद में लेती, कभी चलना तो कभी बोलना सिखाती। माँ का तो वह लाडला था ही। माँ प्रातःकाल जगाते समय, भोजन कराते समय, नहलाते समय, और सुलाते समय कोई-न-कोई भक्तिगीत सुनाकर अपने प्यारे शिशु को रिझाती रहती। इस प्रकार मोहन को भक्तिरस माता के दूध के साथ मिला था। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह वह तेजी से बड़ा होने लगा।
घर में नित्य हनुमान चालीसा का सामूहिक पाठ होता था। पाठ के बाद सब ‘बालाजी की जय’ बोलते। मोहनदास उछल-उछलकर ‘जय बालाजी’ का जयकारा लगाता हुआ मस्ती में झूमने लगता। माँ नित्य तुलसी के थाले में जल देती, सूर्य को अर्घ्य देती और फिर बालाजी को पत्र-पुष्प और प्रसाद चढ़ाती। यही उसका नित्य-नियम था। मोहन माँ के साथ ही लगा रहता। बचपन के संस्कार कच्चे घड़े पर खिंची हुई रेखा के समान अमिट होते हैं। मोहन को पाँच वर्ष की उम्र में ही हनुमान-चालीसा कण्ठस्थ हो गया। वह बड़े प्रेम से श्रीबालाजी को एक पाठ नित्य सुनाता। यों करते-करते उसकी हनुमानचालीसा और श्रीबालाजी में प्रीति हो गयी और वह उत्तरोत्तर बढ़ती गयी।
छोटे-छोटे बालक मोहन के साथ खेलने के लिए उसके घर आते। मोहन के तो खेल ही निराले थे। खेल-खेल में वह कभी श्री बालाजी की पूजा करता, कभी पिता की तरह कीर्तन करता। कभी नाच-नाच कर जय बालाजी के जयकारे लगाता। साथी बालकों पर भी उसकी संगति का रंग चढ़ने लगा था। वे भी उसके साथ ताली बजा-बजाकर नाचते और आनन्द लूटते। कभी-कभी एक अपरिचित लड़का भी खेलने आ जाता था। सुन्दर-सलौना स्वरूप, बदन पर केवल लाल लंगोटी के अलावा कोई वस्त्र नहीं, पूछने पर अपना नाम बाल्या बताता। मोहन का तो वह पक्का मित्र बन गया था।
मोहनदास ज्यों-ज्यों बड़ा होता रहा, हनुमानचालीसा के पाठों की संख्या बढ़ती रही। नित्य एक पाठ से बढ़ कर संख्या पाँच, ग्यारह, इक्कीस तक पहुँच गयी। पाठ करते हुए उसे ऐसा आभास होता था कि साक्षात् श्रीबालाजी उसके मस्तक पर हाथ रखे हुए हैं और अपनी अमृतमयी दृष्टि से उस पर भक्तिरस की वृष्टि कर रहे हैं। उस समय वह भाव-विभोर हो जाता। आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगते। मोहन की इस भक्ति-भावना से माता-पिता को अपार आनन्द मिलता।
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पं. लच्छीरामजी समय-समय पर रैवासा अग्रपीठ जाते रहते थे। गाँव में अन्न की खरीद करने हेतु तूनवा से आने वाले बियाणी वैश्य-परिवार के सेठजी भी कभी-कभार उनके साथ चले जाते। सेठजी बड़े धर्मनिष्ठ और उदार थे। उन्होंने लच्छीरामजी से एक बार रामनवमी के अवसर पर रूल्याणी के शिवमन्दिर में रामायण का नवाह पारायण कराया तो रैवासा से अग्रपीठाधीश स्वामी बालकृष्णदासजी को रुल्याणी आमन्त्रित किया।स्वामीजी मूलतः दाक्षिणात्य थे। वे संस्कृतभाषा के प्रकाण्ड विद्वान् अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, तपस्वी और परमभक्त थे। उन्होंने अग्रपीठ में वेदाध्ययन केन्द्र स्थापित कर अध्यापनार्थ काशी के एक वैदिक विद्वान् को नियुक्त किया था। अनेक विप्रबालक अग्रपीठ में रह कर वेदाध्ययन करते थे। बहुत से विरक्त साधक स्वामीजी से श्रीभाष्य, श्रीरामप्रपत्ति, अध्यात्मरामायण आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए आत्मकल्याण की पारमार्थिक साधना में लगे रहते थे।
स्वामीजी नौ दिन रुल्याणी रुके। सांयकाल भजन-कीर्तन के साथ स्वामीजी का प्रवचन हुआ। कीर्तन के दौरान भावविह्वल हो नृत्य करते बालक मोहनदास पर जब स्वामीजी की नजर पड़ी तो वे देखते ही रह गये। सुन्दर सुघड़ शरीर, मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान, प्रसन्नता से खिले हुए बड़े-बड़े नेत्र, संगीत की ताल और लय के साथ उठते सुकुमार चरण, स्वामीजी ने सामुद्रिक लक्षणों से पहचान लिया कि यह बालक महान सन्त बनेगा। वे उसे देखकर अत्यन्त आनन्दित हुए। भगवान के सच्चे भक्तों को भगवद्भक्त भगवान से भी प्यारे लगते हैं। किसी भक्त का मिलना उनके लिए भगवान के मिलन से भी अधिक सुखदायी होता है। बालक का परिचय प्राप्त कर पं. लच्छीरामजी के भाग्य की प्रशंसा करते हुए बोले कि इस बालक के जन्म से आप धन्य हो गये हैं। यह सेवा और भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप ही है। उन्होंने बालक को अध्ययन हेतु अग्रपीठ भेजने का सुझाव दिया।
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शुभ मुहूर्त देखकर पण्डितजी ने मोहनदास को अध्ययन हेतु अग्रपीठ छोड़ आए। मोहनदास वेदाध्ययन के साथ-साथ स्वामीजी से ध्यानमञ्जरी, श्रीरामप्रपत्ति, अध्यात्मरामायण आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते। दो छात्रों गरीबदास और राघवदास के साथ उनकी घनिष्ठ मैत्री हो गई थी। जिनके गुण समान होते हैं, उनमें बड़ी सहजता से स्वाभाविक मित्रता हो जाती है। ये तीनों बालक स्वामीजी को अत्यन्त प्रिय थे। तीनों सांयकालीन भोजन के बाद स्वामीजी की सेवा में पहुँच जाते। ये स्वामीजी के चरण दबाते और उनसे भगवान श्रीराम और हनुमानजी की दिव्य लीलाओं के रहस्य सुनते। आनन्दकन्द भगवान के लीलाचरित भी आनन्दरूप ही हैं। उनके लीलामृत का स्वाद एक बार मन को लग जाये तो वह अन्यत्र कहीं जाना ही नहीं चाहता।
एक दिन मोहनदास स्वामीजी से अध्यात्मरामायण पढ़ रहे थे। गरीबदास और राघवदास भी साथ थे। मोहनदास ने पूछा – गुरुदेव ! हनुमानचालीसा में एक चौपाई है –
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।
यहाँ गुरुदेव की तरह कृपा करने का क्या तात्पर्य है ? स्वामीजी बोले- बेटा ! लोक में गुरुकृपा ही सर्वाधिक ,महत्त्वपूर्ण होती है। गुरु साक्षात् परब्रह्म होते हैं। वे ही सबसे अधिक श्रद्धेय, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे अधिक हितैषी होते हैं; जो शिष्य का अज्ञान दूर करने के लिए मन से चेष्टा करते रहते हैं। गुरु के समान दयालु और दाता कोई नहीं। जिन्होंने भी कुछ प्राप्त किया है, गुरुकृपा से ही प्राप्त किया है। भगवान की प्राप्ति भी गुरु के उपदेश से ही होती है, इसलिए गुरुकृपा को सर्वोच्च मानकर तुलसीदासजी ने हनुमानजी से गुरु के समान कृपा करने का अनुरोध किया है।
हनुमानजी जिसके गुरु होते हैं उसके लिए भगवान श्रीराम के दर्शन सहज सुलभ हैं। विभीषण, सुग्रीव, तुलसीदास आदि को श्रीराम से हनुमानजी ने ही मिलाया था। उन्होंने एक श्रद्धालु मुस्लिम युवक को परावाणी के ध्यान का उपदेश दिया जिससे उसे सात दिन में ही श्रीसीतारामजी के दर्शन हो गये। तुम भी उन्हें गुरुरूप में स्वीकार कर लो तो भगवान श्रीराम की कृपा तुम्हारे लिए सुगमता से सुलभ हो जाएगी
गरीबदास कृष्णभक्त परिवार से था। उसने पूछा कि क्या हनुमानजी की कृपा से भगवान श्रीकृष्ण की कृपा भी प्राप्त हो सकती है ?
अवश्य ! स्वामीजी बोले। राम और कृष्ण तो एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में हनुमानजी भगवान श्रीराम की वासुदेव नाम से प्रार्थना करते हैं –
न वै स आत्माऽऽत्मवतां सुहृत्तमः।
सक्तस्त्रिलोक्यां भगवान् वासुदेवः।।
चित्रकूट में ललिताचरण नामक एक बालक हनुमानजी का अनन्यभक्त था। रासलीला देखने के बाद उसकी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की इच्छा हुई। उसने हनुमानजी से अनुरोध किया। रात्रि में स्वप्न में प्रकट होकर हनुमानजी ने उसे द्वादशाक्षरी श्री वासुदेव-मंत्र दिया, एक एक तुलसी की माला दी और वृन्दावन जाने के लिए प्रेरित किया। वहाँ उसे नित्य करील की कुञ्जों में श्रीकृष्ण की लीलाओं के दर्शन होने लगे। जिस भक्त की जिस भगवद्-रूप में आस्था होती है, हनुमानजी उसे उसी मार्ग पर चला देते हैं।
मोहनदास ने हनुमानजी को गुरुरूप में स्वीकार कर लिया। अब वे नित्य ब्राह्म मुहूर्त में स्नानादि से निवृत हो हनुमानचालीसा के 108 पाठ करते। उसके बाद अध्ययन प्रारम्भ हो जाता। दिन में अध्यात्मरामायण का स्वाध्याय करते रहते। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने पर वे रुल्याणी लौट आये। वे पौरोहित्य विद्या में निपुण हो गये थे, पर पौरोहित्य कर्म में उनकी रुचि नहीं थी। उनके बचपन के साथी गायें चराया करते थे। मोहनदास भी उनके साथ गायें चराने बीड़ में जाने लगे। उस समय शाहपुरा, रुल्याणी और सेवदड़ा गाँवों के बीच एक बहुत बड़ा बीड़ था।
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कान्ही विवाह योग्य हो गयी थी। सालासरनिवासी पण्डित खींवाराम जी से लच्छीरामजी की घनिष्ठ आत्मीयता थी। उनका भतीजा सुखराम विवाहयोग्य सुन्दर सुशील और व्यवहारकुशल युवक था। सुखराम पिताजी की मृत्यु हो गई थी तथा बड़े भाई टीडियासर गाँव में मन्दिर के महन्त थे। परिवार के जिम्मेदार बुजुर्ग पं. खींवारामजी ही थे। आपसी सहमति से पं. सुखराम के साथ कान्ही बाई का विवाह तय हो गया।
कान्ही की गोद-भराई के नेग के लिए खींवारामजी सपरिवार रुल्याणी आये। वे सुखराम को भी साथ ले आये थे, जिससे झोला-भराई का नेग भी साथ-साथ हो जाये। नेगचार के बाद मिजमानी की रसोई जिमा कर मेहमानों को विदा किया गया।
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रुल्याणी का बीड़ मोहनदासजी की साधनास्थली बन गया था। वे श्रीअग्रदेवाचार्यकृत ध्यानमञ्जरी में निर्दिष्ट ध्यानविधि से भगवान श्रीराम का ध्यान करते। श्री सीतारामजी की मानसपूजा कर उन्हें हनुमानचालीसा सुनाया करते। श्रीबालाजी उनके गुरु थे। गुरुदेव का ध्यान कर उन्हें रामनाम सुनाया करते। पर वे ज्यों ही बालाजी का ध्यान करते उनके मनमन्दिर में एक युवा वैष्णव साधु का रूप उभरता। सिर पर जटाजूट, तेजस्वी चेहरा, माथे पर उर्ध्वपुण्ड्र तिलक घनी दाढ़ी, उठी हुई मूंछें, कानों की ओर झुकती लम्बी भौंहें व कानों में सुन्दर कुण्डल। इन सन्तजी को उसने बचपन में कई बार देखा था। कभी-कभार वे घर आते और सिर पर हाथ कर उसे आशीर्वाद देते थे। जब मोहनदास प्रणाम करते तो सदा एक ही वाक्य बोलते – बेटा ! राम-राम बोलो। मोहनदास राम-राम बोलते। मन्द-मन्द मुस्काते सन्तजी लौट जाते। जब मोहनदास अग्रपीठ में अध्ययन कर रहे थे तब भी उनका यही क्रम था। माँ ने बताया था कि जब वह छोटा था तब भी वे सन्त बालानन्दजी आशीर्वाद देने आते थे। मोहनदास यह नहीं समझ पाते कि जब वे बालाजी का ध्यान करते हैं तो ये सन्तजी क्यों ध्यान में प्रकट हो जाते हैं ; पर यह सोचकर कि कभी-न-कभी तो बालाजी प्रकट होंगे ही, वे जप, ध्यान, पाठ में लगे रहते। उस समय उनके साथी ग्वाले उनकी गायों की रखवाली करते।
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पं. लच्छीरामजी कान्हीबाई के विवाह की तैयारी में व्यस्त थे। मुद्दे का नेग हो जाने के बाद सालासर से चिकनी कोथली आयी तो कान्ही की माँ भात न्यौतने पीहर जा आयी। माताजी की खिचड़ी करने के बाद लावा पूजने और पीले चावल, हल्दहाथ, भट्टीपूजन, बान-बनौरी, मूंगधना आदि नेगचार विधिविधान से किये गये।
सालासर में वर पक्ष के यहाँ चाक-भात मेल व निकासी होने के बाद बारात ने रुल्याणी के लिए प्रस्थान किया। दोपहर ढलते-ढलते बारात रुल्याणी पहुँच गयी। ऊंटगाड़ियों की लम्बी कतार थी। आगे-आगे बग्घी में वर के साथ पं. खींवारामजी और सालासर के ठाकुर सालमसिंहजी थे। बारात की शोभा देखने स्त्री-पुरुषों और बच्चों की भीड़ लग गयी थी। बारात जनवासे पहुँची। स्वागतार्थ खड़े माँडेती बारातियों के स्वागत-सत्कार में जुट गए। गाँव की बेटी का विवाह था सो पूरा गाँव एकजुट होकर व्यवस्था में लगा हुआ था।
जनवासे से वरपक्ष की ओर से नाई बारात पहुँचने की बधाई देने क्वारे माँडे के नेग में कन्या के घर आया। वह साथ में लाल-पीला पाठा, लाल कपड़ा, नाल, हरी डाली और प्यावड़ी लाया था। उसे नेग देकर थांब रोपा गया।
लच्छीरामजी ने समाज के प्रमुख व्यक्तियों, परिवारजनों व रिश्तेदारों के साथ कोरथ के लिए प्रस्थान किया। इधर घर में कन्या का श्रृंगार किया जाने लगा। भात के बाद कन्या की मामी द्वारा घरुआ दिया गया था।
बारात ढुकाव के लिए कन्या के घर की ओर प्रस्थान कर चुकी थी, इसलिए स्त्रियाँ ढुकाव की तैयारी में जुट गयीं। गाजे-बाजे के साथ वर ने कन्या के घर पहुँच कर तोरण मारा। एक तरफ बारात के स्वागत के बाद भोजन की प्रक्रिया चल रही थी दूसरी तरफ फेरों की तैयारी शुरू हो गयी। फेरों के बाद कंवरकलेवा, सिरगूँथी, आंजला, वधु की गोदभराई, सजनगोठ, पहरावनी, फेरपाटा आदि सब नेगचार आनन्द उल्लास से सम्पन्न हुए।
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वर-वधू को विदा करने का समय आया तो मोहनदास का धीर-गम्भीर हृदय भी पिघलने लगा। माता-पिता के लिए तो धैर्य की परीक्षा की घड़ी थी। उन्होंने हृदय में उमड़ते भावना के वेग को बड़ी कठिनाई से नियन्त्रित कर रखा था। यही स्थिति भाईयों, भाभियों व अन्य माँडेतियों की थी। कान्हीबाई विदा होने लगी तो किसी का भावावेग पर नियन्त्रण न रहा। आँसुओं और हिचकियों के बीच विदाई-गीत गाती हुई महिलाओं, माता-पिता, भाई-भाभियों के गले मिलकर कान्ही वर के साथ विदा हुई। बारात के प्रस्थान करते ही घर वालों के धैर्य का बाँध टूट गया। सब आँसू बहाते इधर-उधर निढाल पड़े थे। कौन किसे समझाये।
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कान्हीबाई के विवाह के बाद मोहनदास प्रायः आत्मलीन रहने लगे थे। वे तेजी से साधनामार्ग पर बढ़ रहे थे। बीड़ में साथी ही उनकी गायों की देखभाल करते। वे तो ध्यानमग्न ही रहते।
रक्षाबन्धन पर्व के दिन मन ध्यान में कम लगता था। रह-रह कर कान्हीबाई की याद आती। उन्हें बचपन से अब तक की राखी के त्यौहार की खुशियाँ याद आतीं। जब वे छोटे से थे तो बाई उनके लिए सबसे सुन्दर एक छोटी-सी राखी बनाती। उस राखी में वह अपना सारा कला-कौशल उड़ेल देती थी। बाई बड़े प्रेम से मोहन को राखी बान्धती और छोटी-सी गुड़ की डली उसके मुँह में दे देती। मोहन को गुड़ से ज्यादा बहन के प्रेम की मिठास में आनन्द आता था। बड़े भाई कमाते थे। कुछ-न-कुछ राखी का नेग जरूर देते। मोहन क्या देता ? वह राखी बँधवा कर एकटक बाई की आँखों में झाँकता रह जाता। बाई लपक कर मोहन को गोद में उठाकर चूम लेती। मोहन कलाई में बँधी राखी को देख-देखकर नाचता-कूदता फिरता। कान्ही उसके आनन्द उल्लास को ही राखी का नेग मान लेती थी।
राखी का नेग न दे पाने की कसक मोहन के मन में बनी रहती। भाई नेग के लिए पैसे मोहन के हाथ में देते पर वह न लेता, न माँ से न पिताजी से। उसके मन में एक ही तरंग थी। मेरी राखी सबसे अनोखी होती है। मैं सबसे अनोखा ही नेग दूँगा। पर उसके पास देने को क्या था, सिवा हृदय के। अपने मन की बात उसने सदा मन में ही रखी। क्या देना है, यह वह कभी न समझ पाया। एक बार तो वह राखी के दिन खेत में जा कर पकी हुई ककड़ी-मतीरी तोड़ लाया और बाई को राखी के नेग में दे दी। सब हंस पड़े, सिवाय बाई के। वह उसकी मनः स्थिति समझती थी। उसने झपट कर उसे गले लगा लिया था। अब अतीत की ये बातें याद आतीं तो मोहनदास की आँखों से अनजाने में एक-दो आँसू लुढक पड़ते। ऐसे उदासी के क्षणों में बचपन मित्र बाल्या न जाने कहाँ से आ धमकता था। वह हाथ पकड़कर उन्हें उठा लेता और कुश्ती लड़ने लगता। मोहनदास भी यादों के भँवरजाल से निकलकर उसके साथ कुश्ती लड़ने लगते। उन्हें बाल्या की संगति अच्छी लगती थी। उनके मन में उसके प्रति अनाम सी चाहत पैदा हो गयी थी।
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भगवान के विरह की व्याकुलता एक ज्वाला है, जो जीवन को तपा कर खरे सोने की तरह उज्ज्वल बना देती है। मोहनदासजी के हृदय में भगवत्प्रेम की व्याकुलता भड़क उठी थी। हनुमानचालीसा के पाठ करते-करते मन में बेचैनी भरी उत्कण्ठा होती कि आज अवश्य श्री हनुमानजी के दर्शन होंगे। पर ध्यानावस्था में बालाजी के स्थान पर वे ही सन्त प्रकट होते, तो वे अधीर हो जाते। वे उलाहना देते हुए कहते – हे बालाजी महाराज ! आप मुझे क्यों इतना तरसा रहे हैं ? आप तो गुरु हैं मेरे। गुरु शिष्य के प्रेम की इतनी कठोर परीक्षा लेते हैं क्या ? आपके दर्शन के बिना मेरा एक-एक क्षण वर्ष के समान बीत रहा है। फिर एक चौपाई में हृदय की सारी भावना उड़ेल कर विह्वल स्वर में मन-ही-मन पुकारने लगते –
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।
आँखों से आँसू झरते देख कर साथी ग्वाले उन्हें झकझोर कर उठा देते। वे मोहन की पूजा के तरीके से बड़े हैरान थे। पूजा करते-करते भी कोई रोता है भला ? पर वास्तविक पूजा का रहस्य वे भोले ग्वाले समझते भी कैसे ? यह रहस्य तो बड़े-बड़े पण्डितों को भी समझ में नहीं आता।
एक दिन मोहनदास ने हठ ठान लिया। दर्शन करके ही उठूँगा। दिन ढलने लगा तो ग्वाले चलने की तैयारी करने लगे। मोहनदास बोले – भाईयों ! आप मेरी गायें भी ले जाओ। मैं तो आज बालाजी के दर्शन करके ही उठूँगा। जब साथियों के बहुत समझाने पर भी न माने तो विवश होकर वे मोहनदास की गायों को लेकर गाँव की ओर चल पड़े।
मोहनदास की व्याकुलता चरम सीमा पर थी। बन्द आँखों से आँसू बह रहे थे। शरीर की तनिक भी सुधबुध न थी। तभी उनकी बन्द आँखों को प्रकाश का आभास हुआ। आँखें खोली तो देखा कि वे ही सन्त सामने खड़े हैं, जिनके दर्शन ध्यानावस्था में होते थे। पर आज उनका शरीर प्रकाशमान था। शरीर से दिव्य ज्योति की किरण निकल रही थी। देखते-ही-देखते सन्तजी ने श्रीहनुमानजी का रूप धारण कर लिया। मोहनदासजी हर्ष से गद्-गद् हो उनके चरणों में लोट गये। प्रेम के आंसुओं से गला रुँध जाने के कारण मुख से वाणी नहीं निकल पा रही थी, पर श्री बालाजी तक अपनी भावना पहुँचाने के लिए वाणी की जरुरत पड़ती ही कहाँ है। वे तो हृदय की भाषा समझते हैं। उस भाषा प्रत्येक अक्षर उन तक पहुँच जाता है और वे दयालु हृदय के उन भावों को ग्रहण कर लेते हैं।
श्रीबालाजी बोले – वत्स ! उदास क्यों हो ? तुम प्रभु श्रीराम के कृपापात्र हो, इसलिए मुझे परमप्रिय हो। तुमने तो समझदार होने पर मुझे गुरुरूप में अपनाया, पर मैंने तो तुम्हें तभी अपना लिया था जब तुम निरीह शिशु थे। मैं बार-बार तुम्हारे पास आता रहा हूँ, कभी बाल्या के रूप में तो कभी बालानन्द के रूप में।
मोहनदास भावविह्वल थे। भावावेग से जीभ स्तम्भित थी। प्रार्थना करना भी उनके वश की बात नहीं थी। ऐसी भावसमाधि की दशा में वाणी भी भक्त और आराध्य के बीच आकर उनकी अन्तरंगता में बाधक नहीं बनती। मोहनदास केवल अपलक दृष्टि से श्रीबालाजी को निहार रहे थे। तभी भाव का आवेग उमड़ा तो आँखों से आँसू उमड़ पड़े। आँसू पोंछे तो देखा कि श्रीबालाजी पुनः सन्तरूप में आ गए थे।
मोहनदास के मन में भावना उठी – श्रीबालाजी को भोग लगाना चाहिए। माँ ने दोपहर के भोजन के लिए खिचड़ी साथ में भेजी थी। मोहनदास को मोठ-बाजरे की खिचड़ी बहुत पसन्द थी। कभी-कभार उनकी इच्छा होती तो वे आग्रहकर मोठ-बाजरे की खिचड़ी बनवा लेते। आज वे खिचड़ी ही लाये थे।
मोहनदास ने झोले से खिचड़ी का पात्र निकाला और काँसे के कटोरे में खिचड़ी डालकर ऊपर शक्कर बुरकाई और खिचड़ी आरोगने के लिए अनुरोध करने लगे। श्रीबालाजी उनकी बालसुलभ मनुहार से गद्-गद् हो गए। उन्होंने खिचड़ी का भोग लगाया। इस खिचड़ी का स्वाद ठीक वैसा ही था, जैसा कर्माबाई की खिचड़ी, विदुरपत्नी और भिलनी के बेरों में था।
खिचड़ी का भोग आरोगकर आचमनकर श्रीबालाजी मोहनदास को परावाणी के ध्यान का उपदेश देते हुए कहने लगे कि तुम रामनाम जपते हो। परावाणी ही आदि रामनाम है। परमात्मा श्रीराम ही जीवमात्र के परमपिता है। जिस प्रकार मेले में भटका हुआ बालक पिता की पुकार को सुनकर आवाज के सहारे अपने पिता तक पहुँच जाता है उसी प्रकार परावाणी के सहारे आगे बढ़ने पर उसके प्रतिपाद्य परमात्मा पहुँचा जा सकता है। यह परावाणी परमात्मतत्त्व से उठकर मनुष्य की नाभि में स्पन्दित होती है। इसे सुनने का अभ्यास करो। निरन्तर अभ्यास से मन मौन होगा तभी इसे सुन सकोगे। भगवान श्रीराम की शरणागति ही सर्वश्रेष्ठ साधना है और सेवा सर्वश्रेष्ठ धर्म है। सब प्राणियों को भगवान श्रीराम का ही साकार रूप मान कर उनकी सेवा करते रहो। इसके बाद सन्तवेषधारी श्री बालाजी ने मोहनदास को षडक्षर मन्त्रराज की दीक्षा देकर गले में तुलसी की कण्ठी बाँध दी तथा प्रपत्ति-तत्त्व का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि अभी घर नहीं त्यागना है। उचित समय पर उसका संकेत मिल जाएगा। इसके बाद बालाजी अन्तर्धान हो गये।
उधर ग्वालों ने गायें मोहनदास के घर पहुँचाकर कहा कि, वह तो बीड़ की जांटी के नीचे बैठा है। बार-बार समझाने पर भी नहीं आया। चिन्तित होकर लच्छीरामजी ने पुत्र मनसाराम के साथ बीड़ की ओर प्रस्थान किया। गाँव से बाहर निकलते ही सामने से आते मोहनदास दिखाई पड़े। वे भावोन्माद की दशा में थे। उनकी आँखों में विलक्षण चमक थी।
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पं. लच्छीरामजी गर्भवती कान्हीबाई को पीहर ले आये थे। माँ की इच्छा थी कि कान्ही का जापा पीहर में ही हो। कान्ही के पुत्र का जन्म हुआ तो घर में खुशियों की लहर दौड़ गयी। हर्षित नानी ने थाल बजाया। महिलाएँ आ-आकर बधाई देने लगीं। बच्चे का नाम उदय रखा गया। दो महीने बाद दामाद पं. सुखरामजी कान्ही को ससुराल ले गये तो एक दिन शुभ मुहूर्त में पं. लच्छीरामजी छूछक का दस्तूर करने प्रियजनों के साथ सालासर गये। छूछक का दस्तूर हर्षोल्लास से सम्पन्न हुआ।
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वर्षा हो गयी थी। ग्वाले अपने पशुओं को अब अपने-अपने खेत में ही जाने लगे थे। मोहनदास गायों को लेकर घर से निकले तो उनके पैर बीड़ की ओर ही उठ पड़े। ध्यान की खुमारी में वे बीड़ की ओर ही चल पड़े थे। गायें भी उनके पीछे-पीछे चल रही थीं। बीड़ में पहुँचकर वे जांटी के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गये। गायें चरने लगीं। मोहनदास अकस्मात् ध्यान की गहराई में उतरने लगे। उन्हें लगा जैसे वे किसी असाधारण यात्रा पर चल पड़े हों। मन की यह कैसी अद्भुत अन्तर्यात्रा थी। दृश्य जगत् अदृश्य हो गया था। देह का भी आभास नहीं था। केवल नाभि का स्पन्दन अनुभव हो रहा था। यह स्पन्दन भी क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होता चला गया। सहसा समग्र चेतना सूक्ष्म ध्वनि में लीन हो गयी। यह अनाहत ध्वनि थी, परावाणी का अलौकिक स्पन्दन, आदिरामनाम की अभौतिक अनुभूति। आँखें बन्द होने पर भी वे सबकुछ देख रहे थे। वहां सूर्य का प्रकाश नहीं था, पर अन्धकार भी नहीं था। केवल स्वतः जगत् था और वे स्वयं थे। क्या यह स्वयं से साक्षात्कार था ? तभी समग्र प्रकाश साकार विग्रह के रूप में घनीभूत होने लगा और उनकी दिव्यदृष्टि नीलकमल के समान सुकोमल श्याम-शरीर वाले किरीट हार भुजबन्ध आदि से विभूषित तथा अपनी शक्ति श्रीजानकीजी के सहित दिव्य सिंहासन पर विराजमान भगवान श्रीराम की मनोहर झाँकी के दर्शन करने लगी। प्रभु के चरणनख से निकली दिव्य प्रकाशमयी मनोहर ज्योति मोहनदास को अपनी आभा से नहला रही थी। चरणों में विराजमान श्री हनुमानजी श्रीरामनाम का संकीर्तन कर रहे थे। उनकी संकीर्तन-ध्वनि सुनने में ठीक वैसी ही थी जैसी उन्होंने अभी-अभी परावाणी सुनी थी।
वर्षा से बीड़ की घास हरी-भरी हो गयी थी। नयी ताजा घास के लोभ में आगे बढ़-बढ़ कर चरती हुई गायें बीड़ से शाहपुरा की तरफ बाहर निकलकर एक खेत में घुस गयीं। खेत का मालिक किसान गायों को घेरकर शाहपुरा ले गया। उसने फाटक के चौकीदार को कहकर गायों को फाटक में बन्द करा दिया, जो आवारा पशुओं को कैद में रखने के लिए बनाया गया था।
मोहनदास तो दुनिया से बेखबर थे पर श्री बालाजी सब देख रहे थे। फाटक के चौकीदार के कानों में एक आवाज गूँजी – ‘गायों को बीड़ में पहुँचा दो।’ उसे लगा कि यह मन का वहम है। पर गूँज क्रमशः तेज होती गई। जब स्थिति असह्य हो गयी तो उसने घबराकर गायों को नौकर के साथ बीड़ में भिजवा दिया। नौकर गायों को बीड़ में ले जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि ये गायें किसकी हैं। तेज आवाज सुनकर मोहनदास भांग हुआ। वे दौड़ते हुए उसकी ओर लपके। नौकर ने गायों को सम्भालकर रखने के लिए समझाया और चला गया। मोहनदास उसकी बात को समझने का प्रयास करते हुए गायों को लेकर गाँव की ओर चल पड़े।
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एक दिन मोहनदास गायों को बीड़ में ले जाने के लिए खोलने लगे तो माँ ने मना करते हुए कहा – आज बाहर नहीं जाना है।
क्यों ? मोहनदास ने पूछा।
तुम्हारे लिए एक रिश्ता आया है। लड़की वाले तुम्हें देखने आ रहे हैं।
‘नहीं कराना मुझे विवाह, मैं ब्रह्मचारी रहूँगा।’ मोहनदास ने तुनक कर कहा तो माँ मन ही मन उसकी इस भावभंगिमा पर रीझ कर मुस्कुराने लगी। उसे लगा कि मोहनदास विवाह की बात से शरमा गया है। वह कुछ नहीं बोली और घर के काम में जुट गयी। मोहनदास विवाह के चक्रव्यूह से बचने का उपाय सोचने लगे।
जब मेहमान घर आए तो मोहनदास घर से गायब थे। भाईयों ने आस-पड़ौस, खेत, बीड़ सब छान मारे, पर वे न मिले। मेहमानों के लौट जाने के बाद शाम को घर लौटे तो खूब डाँट पड़ी।
मोहनदास को अब घर से बाहर रहना ज्यादा अच्छा लगता था। वे जल्दी ही कलेवा कर गायें खोलकर बीड़ में ले जाते। माँ से दोपहर का खाना बँधवा लेते और सांयकाल ही घर लौटते। घर पर बने गायों के बाड़े में एक झोंपड़ी थी। रात में उसी में सोते, कहते यहाँ सोने से गायों की देखभाल रहेगी। पिता जानते थे कि यह उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है, जिसका भाग्यलेख है। माँ मोहन के व्यवहार से हैरान और परेशान थी। बेटा धार्मिक प्रवृत्ति का हो, उसमें आध्यात्मिक संस्कार हों, इतना तो ठीक है, पर वह गृहस्थी से विमुख रहे, यह माँ के लिए असह्य है। माँ का कलेजा ऐसा ही होता है। वह तो बेटों की सात पीढ़ियों के सुख की कल्पना और कामना करती है। बेटा कुंआरा रहे यह उसे कैसे बर्दाश्त हो ?
आजकल तो माँ मोहन के पिता पर भी नाराज रहती थी। वे इतने ज्ञानी हैं। सब उनसे सलाह लेते हैं, पर वे अपने बेटे को नहीं समझा सकते। चार-पाँच जगहों से रिश्ते आ गये किन्तु मोहन की असहमति के कारण सबको मना करना पड़ा।
अभी कल ही एक रिश्ता लौटाना पड़ा तो माँ फट पड़ी- ‘कोई कुछ नहीं सोचता-समझता। मोहन के पिता ! आप भी बच्चे के साथ हो गये। हैं वह तो भोला और नादान है। खुद नहीं समझता तो उसे समझाना चाहिए। ‘ यों ही चिन्ता करते-करते माँ ने खाट पकड़ ली। उसे अपने लाड़ले मोहन का भविष्य सूना-सूना दिखता था। उसकी एक ही जिद थी, मोहन का विवाह करना ही होगा।
पिता का भावुक हृदय भी उनके विवेक पर हावी हो गया। वे ज्योतिष के भविष्यफल को भूलकर मोहनदास को प्यार से समझाने लगे – बेटा ! अब तुम बच्चे नहीं रहे। बड़े हो गए हो। उम्र के हिसाब से समझदार होना चाहिए। विवाह का एक समय होता है। वह समय बीत जाने पर विवाह नहीं होता। हमारे रिश्तेदारों और हितैषियों के द्वारा तुम्हारे विवाह के प्रस्ताव लाये जा रहे हैं, पर तुम्हारे व्यवहार के कारण हमें नीचा देखना पड़ता है। देखो ! सेवाभक्ति और शरणागति के लिए गृहस्थी से विमुख रहने की क्या जरूरत है ? गृहस्थी में रह कर तुम बेहतर ढंग से इनका पालन कर सकते हो।
मोहनदास बोले – पिताजी ! आप का कथन युक्ति युक्त है, किन्तु मुझे वैवाहिक जीवन में तनिक भी आकर्षण नहीं है। मेरे लिए स्त्री-पुरुष में अभेद हो गया है, क्योंकि मैं देहदृष्टि से सोच ही नहीं सकता। जिसके हृदय का कामबीज दग्ध हो गया हो, उसका गृहस्थी में प्रवेश क्या आपकी दृष्टि में उचित है ? मुझे नहीं पता कि मेरे लिए प्रभु का विधान क्या है ? पर मुझे लगता है कि प्रभु मुझे अपने विधान के अनुरूप ही चला रहे हैं।
माँ आज एक नये ही मोहन को देख रही थी। हृदय में उमड़ते भावों को वह व्यक्त नहीं कर पा रही थी, किन्तु उसकी आँखें सब कुछ कह रही थीं। मोहनदास पिताजी के पास से उठ कर माँ के चरणों के पास बैठ गए। माँ ने अपने लाडले को कलेजे से लगा लिया, पर कुछ बोल नहीं सकी।
‘माँ ‘ मोहनदास ने ही मौन को भंग किया। वे कातर स्वर में कहने लगे – ‘मैं जनता हूँ माँ ! तुम मेरे लिए दुःखी हो। इसके लिए मैं लज्जित हूँ, किन्तु तुम जिस राह पर मुझे ले चलना चाहती हो, ईश्वर ने मुझे उसके लिए नहीं बनाया है। मैं अपनी मंजिल को तो नहीं जानता, पर मेरी राह वही है जिस पर मैं चल रहा हूँ।’
माँ ! मैं भक्ति की राह पर चलना चाहता हूँ। मुझे आज्ञा दो माँ, मुझे उसी राह पर चलने की अनुमति दो, जो प्रभु ने मेरे लिए नियत कर रखी है। मोहन ने अपना सिर माँ के चरणों में रख दिया। उसके आँसुओं ने माता के चरणों को भिगो दिया और माता के आँसुओं ने उसके सिर को भिगो दिया।
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गायों को चराने के लिए बीड़ में ले जाना, वहाँ हनुमानचालीसा के पाठ, ध्यान और भगवन्नाम का स्मरण करना मोहनदासजी की दिनचर्या के प्रमुख कार्य हो गए थे। गायों को तो साथी ग्वाल-बाल ही सम्भालते थे। बालाजी समय-समय पर दर्शन देकर उन्हें साधनामार्ग पर आगे बढ़ाते थे। जिस दिन मोहनदासजी अपनी पसन्द की मोठ-बाजरे की खिचड़ी लाते, उस दिन तो बालाजी अवश्य पधारते। मोहनदासजी प्रेमपूर्वक खिचड़ी का भोग लगाते और बालाजी आनन्द से आरोगते। बालाजी ने भक्त की रुचि से अपनी रुचि को एकाकार कर लिया था। यों भी भगवान की अपनी रुचि होती ही कहाँ है। समर्पित अनन्य भक्त उन्हें जिस प्रकार रखते हैं, वे उसी प्रकार रह लेते हैं। दूसरी तरफ भक्त भी अपने आपको भगवान की मर्जी पर छोड़ देते हैं। भक्त और भगवान की यह लीला अपरम्पार है।
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ज्येष्ठ का महीना। पूर्णिमा की रात। चाँद अपनी उजली चाँदनी से धरती के हृदय को शीतल कर रहा था। अकस्मात् दक्षिण दिशा से काले बादलों की एक घटा उमड़ती हुई उठी। रह-रह कर बिजली चमक रही थी। सहसा एक बादल ने तेजी से आगे बढ़कर चाँद को ढक लिया। चाँदनी रात अन्धेरी हो गयी। कुछ ही देर में वर्षा होने लगी।
गायत्री ने अपने आँगन में एक बेल लगायी थी। आसमान से बरसती बून्दें बेल के पत्तों पर गिरकर नीचे फिसल जातीं। टप-टप की हल्की आवाज आती। ऐसा लगा मानो चन्द्रदर्शन से वंचित बेल आँसू बहा रही हो।
गायत्री का हृदय रात से ही बेचैन था। अनहोनी की अज्ञात आशंका उसके हृदय को कचोट रही थी। वह रात भर करवटें बदलती रही, पर बेचैनी का कोई कारण उसे समझ में नहीं आ रहा था। मोहन की नियति को तो उसने स्वीकार कर लिया था। फिर यह उद्वेग ?
दोपहर के चढ़ते सूर्य की तेज धूप से बारिश की ठण्डक का असर समाप्त हो गया था। अचानक दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। पण्डितजी ने दरवाजा खोला। आगन्तुक सालासर का था। उसने अपना ऊँट घर के बाहर ही एक नीम की जड़ से बाँध दिया था। वह अपनी बात दरवाजे से बाहर ही कह देना चाहता था। उसने अटकते-अटकते अपनी बात पूरी की। उसके शब्द पिघले हुए शीशे की तरह पण्डितजी के कानों में उतर गये। आँखों के सामने अन्धेरा सा छा गया। आगन्तुक सुखरामजी की मृत्यु का समाचार लाया था। उसने हाथ जोड़े और बिना कुछ बोले, बाहर निकलकर ऊँट पर सवार हो लौट पड़ा।
पण्डितजी से यह समाचार सुनते ही गायत्री बेसुध हो गई। उसका माथा दीवार से टकरा कर सुन्न सा हो गया। नेत्र फटे-के-फटे रह गए। श्वास भी जैसे थम गया था। अचानक उसके मुँह से चीत्कार फूटा और फिर आँखों से आँसू और कण्ठ से क्रन्दन एक साथ बह निकले।
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सुखरामजी की पन्द्रहवीं की रस्म तक लच्छीरामजी सालासर ही रहे। फिर महन्तजी से आज्ञा ले कर वे कान्ही और उदय को रुल्याणी ले आये। खींवारामजी की मृत्यु के बाद महन्तजी ही खानदान में एकमात्र बुजुर्ग थे।
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कान्हीबाई को घर आए चार महीने हो गये थे। उदय अभी पाँच वर्ष का ही था। वह गुमसुम ही रहता था। विपत्ति ने इस घर का रास्ता देख लिया था। कान्ही के आने के बाद एक-एक माह के अन्तराल से उसके माता और पिता दोनों की मृत्यु हो चुकी थी। कान्हीबाई का खाना-पीना छूट सा गया था। बड़ी कठिनाई से दो-चार निवाले ले पाती। एक दिन मोहनदास समझाते हुए बोले – बाई ! उदय की ओर देखो। इसके लिए अपने जीवन की रक्षा करो। अब यही जीने का सहारा है। कान्ही ने मोहन की गोद में सुबकते उदय को देखा। उदय का चेहरा पीला पड़ गया था। बेटे की यह दशा देख कर उसका हृदय इस प्रकार ऐंठने लगा, जैसे उसे गीले कपड़े की तरह निचोड़ा जा रहा हो।
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रात घिर चुकी थी, पर आँगन में चारपाई पर लेटी कान्हीबाई की आँखों में नींद नहीं थी।
‘बाई’ ! उसके कानों में मोहनदास की आवाज पड़ी। वे पास की चारपाई पर उदय के साथ लेटे थे।
बाई ! सोयी नहीं ? मोहनदास पूछ रहे थे।
‘हूँ ‘ आत्मलीन कान्ही के कण्ठ से हल्की सी आवाज निकली। उसने मोहन की ओर देखा। मोहनदास ने चाँदनी में चमकते उसके आँसू को देख कर उसकी मनः स्थिति समझ ली। बाई चुपचाप चाँद को पार करते बादलों को देखने लगी।
बाई ! जीवन में परिस्थितियाँ इन बादलों की तरह ही अस्थिर होती हैं। यही परिवर्तन ही जीवन है।
कान्ही मौन थी, पर उसका चिन्तन जारी था।
बाई ! तुम कुछ सोच रही हो ?
हाँ भैया ! उदय के बारे में सोच रही थी। उसे सालासर से आये बहुत दिन हो गए। अब वहाँ जाना चाहिए। कान्हीबाई ने कहा। उसने भावी जीवन की दिशा तय कर ली थी।
पर उदय अभी छोटा है। यहाँ रहना उसके लिए अधिक सुविधापूर्ण रहेगा।
उसे सुविधा में नहीं संघर्ष में पलने दो भैया, कान्ही का स्वर गम्भीर और निश्चयात्मक था। उदय को जीवन की पगडंडी परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए स्वयं तैयार करनी चाहिए। उसका यह समय संघर्ष यात्रा में उतरने का है, सुविधा भोगने का नहीं। उसे मेरी कमजोरी नहीं संबल बनना है। यहाँ तो वह विधवा बेटी की अनाथ सन्तान के रूप में सबकी सहानुभूति का पात्र रहेगा। सब उसे कान्ही का बेटा ही कहेंगे न। मैं चाहती हूँ कि उसे सब अपने पिता के नाम से जानें। वह अपनी पैतृक वंश-परम्परा के गौरव को सुनता समझता बड़ा हो। ऐसा सालासर में ही हो सकता है। रुल्याणी उसकी शरणस्थली है। कर्मस्थली तो सालासर ही है।
मोहनदास मौन थे। कान्ही ने चाँद की रौशनी में देखा कि मोहन की आँखें बन्द हैं, पर वह सोया नहीं है।उसके चेहरे पर दृढ़ निश्चय के भाव थे। ऐसा लग रहा था जैसे उसने कोई संकल्प कर लिया हो। कान्हीबाई ने भी आँखें बन्द कर ली।
सुबह उठते ही कान्हीबाई ने अपना निश्चय बड़ी भाभी को बता दिया था। भाभी असमंजस में थी। उसने परामर्श के लिए पास-पड़ौस की बुजुर्ग महिलाओं को बुला लिया था। सबने कान्हीबाई का समर्थन करते हुए कहा कि उदय के हित के लिए यही करना उचित है, पर सालासर में संरक्षक के बिना माँ-बेटे को समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इस समस्या का समाधान किसी के पास न था, सिवाय मोहनदास के। जब उन्होंने बाई से साथ सालासर रहने का निश्चय बताया तो सब संतुष्ट हो गये। बड़ा भाई मनसाराम ऊँटगाड़ी में आवश्यक सामान के साथ कान्हीबाई मोहनदास और उदय को सालासर छोड़ आया।
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उत्तर चरित्र
दिन,महीने,वर्ष बीतते गये। मोहनदासजी का कठोर परिश्रम रंग लाया था। खेत में भरपूर फसल होती थी। घर में पर्याप्त गायें थीं, इसलिए दूध दही की कोई कमी नहीं थी। ये पिछले तीन वर्ष मोहनदासजी की लगन, परिश्रम और सेवानिष्ठा के वर्ष थे। रैवासा में उन्होंने पौरोहित्य विद्या सीखी थी, वह उदयराम को सीखा दी थी। उदयराम की आयु अब आठ वर्ष से ऊपर हो चुकी थी। गाँव में पूजा-पाठ के लिए उसे बुलाया जाने लगा था। इस प्रकार घर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गयी थी। कान्हीबाई की इच्छा थी कि भैया का विवाह हो जाये तो उसकी वंश परम्परा कायम रहेगी। वह जानती थी कि मोहन अनेक बार विवाह के प्रस्ताव ठुकरा चुका है। फिर उसने सोचा वो तो लड़कपन की बात थी। अब वह बहुत सयाना हो चुका है। सालासर में सर्वत्र उसकी सेवाभावना, परिश्रम,निष्ठा और समझदारी की प्रशंसा हो रही है। इसलिए अब पुनः प्रयास करना उचित है। कभी आशंका होती कि वह नाराज न हो जाये। ‘पर नाराजगी के भय से उसकी वंशपरम्परा तो नष्ट नहीं की जा सकती’ यह सोचकर वह बार-बार इस विषय में मोहन भैया से चर्चा करती, पर वे उसकी बात को हँसी में उड़ा देते।
एक बार वह भैया से उलझ पड़ी- ‘विवाह के बिना खानदान कैसे चलेगा। पितृऋण से मुक्त होने के लिए विवाह होना आवश्यक है’ इत्यादि बातें समझाते हुए उसने कहा कि विवाह के एक प्रस्ताव को मैंने स्वीकार कर लिया है। प्रस्ताव सालासर का बींजा नाई लाया था। मोहनदासजी उलझन में पड़ गये। वे अब हर-समय इस संकट से मुक्ति के लिए श्री बालाजी से प्रार्थना करते रहते। कान्ही उनकी निरंतर बढ़ती अन्तर्मुखी वृत्ति से विचलित तो थी, पर उसने सोचा कि विवाह के बाद सब ठीक हो जायेगा.
एक दिन खिन्न व बेचैन मोहनदासजी को श्री बालाजी ने स्वप्न में बताया कि तुम व्यर्थ परेशान हो। जिस कन्या के साथ तुम्हारे विवाह की बात तय हुई थी उसकी तो आज मृत्यु हो गयी है। विधाता के लेख में उसकी इतनी ही आयु लिखी थी। मोहनदासजी ने स्वप्न की बात बतायी तो कान्ही ने कहा कि सपने तो सपने ही होते हैं। सपने की बात का बहम नहीं करना चाहिए। अगले दिन बींजा नाई सिंधारा लेकर कन्या के घर पहुँचा तो उसे बताया गया कि , कन्या की तो मृत्यु हो चुकी है। वह लंबे समय से बीमार थी। एक दिन पूर्व ही उसका निधन हो गया है। बींजा नाई ने सारी बात कान्ही को बता दी
कान्हीबाई ने पुनः विवाह के लिए बात करनी चाही तो मोहनदासजी ने दृढ़तापूर्वक अपना ब्रह्मचर्यपालन का निश्चय बता दिया और विवाह के विषय में चर्चा न करने का अनुरोध किया। बाई को बुझे दिल से उनका अनुरोध मानना पड़ा।
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सालासर मोहनदासजी के लिए सेवातीर्थ बन गया था। गाँव में कहाँ कौन बीमार है इसका वे तुरन्त पता लगाकर सेवार्थ वहाँ जा पहुँचते। गाँव में साधु सन्त आते तो वे उनकी मनोयोग से सेवा करते। घर पर कोई आता तो उसे बिना खिलाये नहीं लौटने देते। खेत से कड़बी के पूले लाकर गाँव की निराश्रित गायों के चरने के लिए सार्वजनिक स्थान गुवाड़ में डाल देते। सालासर में एक फाटक था,जहाँ निराश्रित पशुओं को बंद कर दिया जाता था,ताकि वे खेतों को हानि न पहुँचायें। मोहनदासजी ने ठाकुर सालमसिंहजी को प्रेरित कर उस फाटक को गोशाला में परिवर्तित करा दिया। वे खेत से कड़बी के पूले वहाँ लेकर डाल देते। उनसे प्रेरित हो अन्य व्यक्ति भी ऐसा करने लगे। गाँव में जल की समस्या थी। इस समस्या के समाधान के लिए वे विचार करते रहते थे।
उदयराम की एक कुशल पंडित के रूप में ख्याति आस-पास के गाँवों तक फैल चुकी थी। जब वह विवाह के योग्य हो गया तो मोहनदासजी ने महंतजी से परामर्श कर उसका विवाह कर दिया। पुत्रवधू गृहकार्य में निपुण थी। अब कान्हीबाई घर-गृहस्थी के कार्य से फुरसत पाकर कुछ समय मोहनदासजी के साथ भगवच्चर्चा बिताने लगी।
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आषाढ़ का महीना था। ज्येष्ठ की पहली वर्षा से धरती पर हरियाली की चादर बिछ चुकी थी। किसान खेतों में हल जोतने लगे थे। मोहनदासजी उदयराम के साथ खेत पहुँचे। वे खेत में उगी हुई फालतू झाड़ियों को काटकर खेत को जुताई-बुवाई के योग्य बनाने लगे। काम करते-करते मोहनदासजी ने एक झाड़ी को काटने के लिए ज्योंही गण्डासी चलायी तो गण्डासी उनके हाथ से छूटकर गिर पड़ी। उन्हें लगा कि जैसे किसी ने गण्डासी उनके हाथ से झटके से छीनकर पटक दी है। दुबारा गण्डासी चलाने की कोशिश करने पर फिर वैसा ही हुअ। तीसरी बार पुनः प्रयास किया तो सहसा उनकी आँखें तीव्र प्रकाश से चौन्धिया गयीं। उन्होंने देखा कि वह झाड़ी प्रकाश से घिरी हुई है। उस झाड़ी में उन्हें भगवान् श्रीराम की छवि दिखाई दी। आँखें मलते हुए उन्होंने आस-पास दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि बेरी,फोग,आक,बूई,खींप,सिणिया,खींप,साटा,भाँखड़ी,भरुँट सबमें भगवान् श्रीराम छवि झलक थी। अब वे उन पर गण्डासी कैसे चलाते? तभी उनके कानों में एक गम्भीर आवाज गूँजी – ‘वत्स! लौकिक कर्मों के त्याग का समय आ गया है।’
मोहनदासजी गण्डासी छोड़कर पास की जाँटी के नीचे बैठ गये। बैठते ही ध्यान लग गया। ध्यानावस्था में श्री बालाजी ने प्रेरणा दी कि उदयराम का विवाह करते ही तुम्हारा संकल्प और सब कर्तव्यकर्म पूर्ण हो चुके हैन। अब तुम्हें घर त्यागकर साधु वेश धारण कर लेना चाहिए। मोहनदासजी को बैठा देखकर उदयराम समझे कि मामाजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उन्होंने मोहनदासजी से घर जाकर आराम करने का अनुरोध किया तो वे घर की और चल पड़े।
घर आकर उन्होंने कान्हीबाई को घर छोड़कर साधुवेश धारण करने का निश्चय बताया तो वह व्याकुल हो गयी। रूँधे हुए गले से इतना ही कह सकी-‘कैसी बात करता है तू मोहन, पागल गया है क्या?’ मोहनदासजी ने बाई को शान्तिपूर्वक धैर्य बँधाते हुए सारी बात समझायी। वह दुविधापूर्ण उलझन में फस गयी थी। एक ओर वह मोहन भैया की खुशी और उत्साह को खण्डित नहीं करना चाहती थी तो दूसरी ओर उसे इस बात की ग्लानि थी,कि भैया ने तन-मन-धन सब कुछ मेरी सेवा और संरक्षण के लिए अर्पण कर उजड़ा हुआ घर फिर बसा दिया, पर भैया ने मुझे अपनी सेवा का कोई अवसर नहीं दिया। अब जब इसे सेवा की जरुरत पड़ेगी तो ये घर छोड़कर जा रहा है। पीड़ा भरे हृदय से बाई और उदयरामजी ने मोहनदासजी के अनुरोध को स्वीकार किया।
अगले दिन मंगलवार को मोहनदासजी साधुवेश में घर से विदा हो गये। उदयरामजी ने गाँव से बाहर उनकी चुनी हुई जगह पर एक कुटिया बनवा दी। कुटिया के आस-पास जाँटियों का एक झुरमुट सा था। पास ही एक जाल का पेड़ था। मोहनदासजी ने कुटिया के सामने एक धूणा स्थापित के लिया। धूणे के पास बैठकर वे दिनभर तपस्या करते। वे दिन में मौनव्रत रखते, इसलिए श्रद्धालु आते नहीं थे ताकि उनकी एकान्त साधना में विघ्न न हो। उदयरामजी या कान्हीबाई दिन में आकर आवश्यक व्यवस्था कर जाते थे। सायंकाल होते ही श्रद्धालुजन आ जुटते थे। शाम को सत्संग भजन-कीर्तन का कार्यक्रम होता था। रात्रि में वे देर रात तक ध्यानमग्न रहते।
वे रात-दिन आत्मस्वरूप का चिंतन-मनन करते। वे विचार करते कि ‘मैं कौन हूँ’। इस विचार को ही उन्होंने अपना जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसी विचार में उनका समय बीतता। जैसे प्याज के छिलकों को एक-एक कर अलग कर देने से कुछ भी शेष नहीं रहता,उसी प्रकार गहन साधना से उन्हें ज्ञात हो गया कि ‘मैं’ नामक कोई वस्तु नहीं है। ‘मैं’ स्थूलशरीर नहीं हूँ। ‘मैं’ सूक्ष्मशरीर नहीं हूँ। ‘मैं’ कारणशरीर नहीं हूँ। ‘मैं’ आत्मा हूँ,एक विराट् अस्तित्वमात्र। एक परम आत्मा सर्वत्र विद्यमान है। ‘मैं’ नामक उपाधि उस विराट् परम आत्मा को क्षुद्र जीवात्मा में बदल देती है। सब कुछ परमात्मा है। सब चराचर जगत् राममय है। यह अनुभूति होते ही उनका मन अहर्निश राम में ही रमण करने लगा। प्राणिमात्र उन्हें राम का रूप नजर आने लगा। उनकी भक्ति पराकाष्ठा तक पहुँच गई थी। अहर्निश वे परावाणीरूप आदि राम नाम के श्रवण के आनंद में दुबे रहते।
इस अनन्नयभक्त की निष्ठा और समर्पण से प्रसन्न होकर परमपिता श्रीराम और माता जानकी जी ने प्रकट होकर उन्हें दिया। मोहनदासजी भावविभोर हो उनके चरणों में लोट गये। भगवान् ने वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारी यह तपोभूमि मनोवांछित फल देने वाली होगी। यहाँ आने मात्र से मनुष्य दुःखमुक्त हो सुख-समृद्धि प्राप्त करेंगे। तुम्हारे गुरु हनुमानजी यहीं स्थायी रूप से विराजमान रहेंगे। माता जानकी ने उन्हें कवित्वशक्ति का वरदान दिया। माता जानकी की कृपा से मोहनदासजी के अंतःकरण में कवित्वशक्ति का जागरण हुआ तो वे पद्यों रचना करने लगे। वे गूढ शास्त्रीय रहस्यों को सरल मारवाड़ी भाषा में आसानी से श्रद्धालु को हृदयंगम करा देते थे। उनकी काव्यवाणी मोहनदासवाणी के रूप में प्रसिद्ध हुई। यह वाणी श्रद्धालुजनों के कण्ठ में विराजमान होने लगी।
एक दिन सालमसिंहजी ने पूछा की जीवन में दुःख ही दुःख है। दुःख से छुटकारा कैसे मिल सकता है? मोहनदासजी ने कहा कि दुःख से मुक्ति दिलाने में तो भगवान् श्रीराम ही समर्थ हैं। यह संसार ही दुःखालय है। रामकृपा से ही व्यक्ति जीवन में दुःखमुक्त रहकर,अन्त में संसार में आवागमन मुक्त हो जाता है। शोभासर के ठाकुर धीरजसिंहजी भी वहीं थे। उन्होंने पूछा कि भगवान् श्रीराम के दर्शन व उनकी कृपा की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
मोहनदासजी बोले कि भगवान् से मिलाप तो श्री हनुमानजी की शरण लेने से ही हो सकता है। अपनी बात को वाणीरचना में पिरोते हुए वे बोल उठे-
ले शरणू हणमान को मोहन करो मिलाप ।
राम सबल छण एक में मेटे दुःख विलाप ॥
एक बार राम नाम का महत्त्व बताते हुए मोहनदासजी बोले-
राम शब्द में परम सुख जे मोहन मिल ज्याव ।
चौरासी आवै नहीं जग में धका न खाव ॥
मुख से राम नाम का निरंतर जप करने से हृदय शुद्ध हो जाता है। फिर हृदय में अपने-आप रामनाम का जाप होने लगता है। इस जाप से हृदय में एक विराट् मौन का अवतरण होता है। फलस्वरूप नाभि में स्पन्दित परावाणीस्वरूप आदि रामनाम का साक्षात्कार होने लगता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस ‘आदि रामनाम’ को सूर्य, चन्द्र व अग्नि का हेतु, ब्रह्मा, विष्णु और महेश का स्वरूप, वेद का प्राण, अगुन अनुपम और गुणनिधान बताया है-
बन्दउँ नाम राम रघुवर को ।
हेतु कृशानु भानु हिमकर को ॥
विधि हरि हरमय वेद प्राण सो । अगुन अनुपम गुननिधान सो ॥
मोहनदासजी का उत्कट भक्तिभाव देखकर ग्रामवासी उन पर अनुरक्त थे। वे आदर से मोहनदासजी को बाबाजी कहने लगे थे। मोहनदासजी सबको भगवद्रूप में देखते और उनके दुःख-दर्द मिटाने के लिए प्रभु से प्रार्थना करते। उनके व्यवहार में सौम्यता, प्रेम और सदभाव रहते थे। कटुवचन तो उनके मुख से कभी निकलते ही नहीं थे क्योंकि उन्हें कभी किसी पर क्रोध नहीं आता था। वे सबके हृदय में श्रीराम का दर्शन करते थे। सायंकालीन सत्संग के समय भक्तजन मोहनदासजी के धूणे पर जुट जाते। उदयरामजी के घर दो पुत्र जन्मे थे। बड़ा पुत्र कनीराम इस समय 7 वर्ष का तथा छोटा पुत्र ईसरदास 5 वर्ष का था। दोनों धूणे पर जाने के लिए दादी कान्हीबाई से आग्रह करते। कान्हीबाई को कनीराम और ईसरदास के साथी बालक भी कान्हीदादी कहकर पुकारते। कान्हीदादी अपने दोनों पोतों व उनके साथियों को लेकर धूणे पर पहुँच जाती।
एक दिन कान्हीबाई कि सब लोग चले गए है तो उसने अपने मन की अभिलाषा प्रकट करते हुए मोहनदासजी से कहा- “भैया मेरे मन में बालाजी के दर्शन की अभिलाषा है। क्या मुझ अज्ञानिनी को भी वे दर्शन देंगें। मोहनदासजी बोले- बाई!तुमने यह कैसे सोच लिया कि बालाजी ज्ञानियों को ही दर्शन देते है? वे तो हृदय की प्रेमभरी पुकार पर रीझते हैं। तुम उन्हें पुकारो तो सही, वे अवश्य दर्शन देंगे।”
अब तो कान्हीबाई हृदय से बालाजी को पुकारने लगी। रात को इसी पुकार के साथ सोती। प्रातः दर्शन की पुकार के साथ ही जगती। इसी अभिलाषा के अनुरूप ही स्वप्न देखती। बालाजी कब तक उसकी व्याकुल पुकार की उपेक्षा करते। वे एक दिन साधुवेश में उसके द्वार पर जा पहुँचे। पर भक्त की परीक्षा लेने का उनका स्वभाव छूटता नहीं, सो ऐसे वक्त पहुँचे जब मोहनदासजी सुन्दरकाण्ड के पाठ के आयोजन में घर आये हुए थे। सब पाठ करके भोजन-प्रसाद पा रहे थे। आते ही भिक्षा के लिए आवाज लगायी। कान्हीबाई भोजन परोस रही थी। जैसे ही वह भोजन परोस कर चूरमा का प्रसाद साधुबाबा को अर्पण करने आयी, बाबाजी जा चुके थे। साधु के खली लौट जाने से कान्हीबाई को बड़ा दुःख हुआ। उसने साडी बात मोहनदासजी को बतायी तो वे हनुमानजी की लीला समझ गये। वे तत्काल आचमन करके उठे और साधु बाबा के पीछे भागे। उन्होंने साधुवेशधारी बालाजी के चरण पकड़ लिये तथा घर चलकर भोग लगाने का अनुरोध करने लगे। बालाजी हँसकर बोले- मैं तो परीक्षा ले रहा था। तुम दुःखी मत हो। कान्ही को समझाकर कहना कि मैं आश्विन की पूर्णिमा को घर आऊंगा। मोहनदासजी ने कान्हीबाई को सब बात बता दी।
‘बालाजी मेरे घर पधारेंगे’ इस बात को सुनते ही कान्हीबाई का मनमयूर नाचने लगा। आश्विन की पूर्णिमा के अभी दो महीने पड़े थे, पर उसे ये दो महीने एक क्षण से भी छोटे लगे। हृदय में सच्चा प्रेम न हो तो साधक थोड़े समय की साधना और प्रतीक्षा से ही उकता जाता है, गहरा प्रेम हो तो ‘प्रभु मिलेंगे’ यह पता लग जाना ही बहुत बड़ा वरदान है। ऐसा साधक समय की गणना नहीं करता ।
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‘आज आश्विन की पूर्णिमा है, बालाजी घर पधारेंगे’ इस कल्पनामात्र से ही कान्हीबाई भाव-विभोर थी। प्रेमरस में डूबी हुई वह भोजन की तयारी करने लगी। प्रातः जल्दी उठकर उसने अपने हाथों से बाजरे का मोटा आटा पिसा। बाजरे का रोटा बनाकर, उसे चूरकर घी और गुड़ डालकर चूरमा बनाया। हारे में कण्डों की मन्दी आँच में खीर पकाई। नयी चारपाई पर नये-नये गद्दे,चादर,तकिया आदि लगाकर स्वागत की पूरी तैयारी कर ली। सच्चा भक्त भगवान् को सर्वोत्तम वस्तु ही चाहता है, किन्तु भगवान् वस्तु को नहीं बल्कि वस्तु अर्पण करने वाले की भावना को ही देखते हैं। यहाँ तो वस्तु और भावना दोनों ही शुद्ध थे, सो श्रीबालाजी ही था। जैसे प्यासा प्राणी जल के लिए झटपटाता है, पानी में डूब रहा व्यक्ति साँस लेने के लिए के लिए तड़फता है और एक क्षण की भी देरी सह नहीं सकता, वैसी दसा जब प्रभुदर्शन के लिए भक्त की हो जाती है तो प्रभु कोभी एक क्षण का विलम्ब सहन नहीं होता। वे भक्त के सामने प्रकट होते ही हैं। श्रीबालाजी सन्तवेश में पधारे। चरण पखारकर उनको खीर चूरमे का भोग लगाया गया। घर में उत्सव का माहौल था। भोजन के बाद श्रीबालाजी चारपाई पर बिराजे। सबको रामभक्ति का उपदेश दिया। जाने से पूर्व अपने वास्तविक रूप में दर्शन दिये। अद्भुत तेजस्वी था वह रूप। उस तेज में न तो ताप था और न उससे नेत्र चौन्धियाते थे। सब उस दिव्य रूप के दर्शन कर धन्य-धन्य हो गए। सालासर में मूर्तिरूप में पधारकर विराजने का वचन देकर श्रीबालाजी अन्तर्धान हो गये।
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जोधपुर के राजसिंहासन पर अधिकार के लिए रामसिंह और विजयसिंह में संघर्ष चल रहा था। डीडवाना का मैदान युद्धभूमि बना हुआ था। रामसिंह की सहायता के लिए जयअप्पा के नेतृत्व में मराठा सेना डीडवाना जा रही थी। सेना के आगे-आगे चल रहे घुड़सवारों के अग्रिम दल ने सालासर के पास के मैदान को सेना के पड़ाव के लिए पसंद किया तथा सालासर के ठाकुर सालमसिंह को भोजन-पानी की व्यवस्था करने को कहा। छोटे गाँव का ठाकुर इतनी विशाल सेना के भोजन-पानी की व्यवस्था कैसे करे? वे घबराकर मोहनदासजी की शरण में पहुँचे। मोहनदासजी बोले- ‘डरने की कोई बात नहीं है। एक ध्वजा में धूणे की विभूति बांधकर, उसे तीर पर बांधकर सेना की दिशा में छोड़ दो। श्रीबालाजी सब ठीक करेंगे।’ ऐसा करते ही संकट टल गया। सेना वहाँ पड़ाव डाले बिना ही आगे बढ़ गयी। अब तो सालमसिंह मोहनदासजी के परमभक्त हो गए।
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विक्रम संवत् 1811, श्रावण शुक्ला नवमी, शनिवार के दिन नागौर राज्य के आसोटा ग्राम का एक किसान अपने खेत में हल चला रहा था। चलते-चलते बैल रुक गये। हल की नोक के पास से मिट्टी हटाने पर किसान ने वहाँ बालाजी की मूर्ति देखी। किसान ने मूर्ति गाँव के ठाकुर को देते हुए सारी घटना बतायी। ठाकुर ने देखा की मूर्ति में बालाजी के कन्धों पर राम-लक्ष्मण विराजमान थे। उन्होंने मूर्ति को हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा महल में रखवा लिया।
अकस्मात् ठाकुर को मूर्ति सर आवाज सुनायी दी- ‘मुझे सालासर पहुँचाओ।’ ठाकुर ने ध्यान नहीं दिया तो दुबारा आवाज आयी। फिर तीसरी बार जोर से आवाज आयी तो ठाकुर ने आज्ञा का पालन किया। उन्होंने मूर्ति को बैलगाड़ी द्वारा सालासर के लिए विदा किया। मोहनदासजी ने स्वप्न में श्रीबालाजी से मूर्ति के पधारने की सुचना पाकर अगवानी की। सालासर में मोहनदासजी के धूणे के पास बैल अपने आप रुक गये। वहाँ एक तिकोने टीले पर बालाजी की मूर्ति को पधराया गया। उस दिन श्रावण शुक्ला दशमी का रविवार था।
मूर्ति की स्थापना के बाद सबने मिलकर मूर्ति के ऊपर एक छप्पर तान दिया। जब छप्पर लगाने का कार्य चल रहा था तो जुलियासर के ठाकुर जोरावरसिंह उधर के रस्ते से गुजरे। जब उन्हें पता चला कि यहाँ बालाजी की मूर्ति स्थापित की गयी है तो उन्होंने मन-ही-मन पीठ का फोड़ा ठीक करने हेतु बालाजी से प्रार्थना की। यह फोड़ा उन्हें लंबे समय से कष्ट दे रहा था। रात्रि में ही उनका फोड़ा मिट गया तो उन्होंने पत्नी सहित बालाजी के दर्शन कर गठजोड़े की जात दी तथा श्रद्धापूर्वक भेंट चढ़ायी।
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मंगलवार को श्रीबालाजी का स्नान-मार्जनादिपूर्वक पूजन, सिन्दूरलेपन व श्रृंगार किया गया। उस समय मोहनदासजी प्रेम की विलक्षण दशा में थे। बचपन से बालाजी के जिस संत रूप का दर्शन करते रहे थे, वही रूप उनके मन-मस्तिष्क व नेत्रों में समाया हुआ था। उस समय उनकी समग्र चेतना उसी रूप से एकाकार हो गयी थी। उसी भावदशा में श्रृंगार का कार्य सम्पन्न हुआ। भावसमाधि टूटी तो देखा कि मूर्ति पर उनके द्वारा बालाजी का वही रूप बना दिया गया था। तभी उनके कानों में श्रीबालाजी की वाणी गूँजी- ‘वत्स!सालासर में मैं इसी रूप में रहूँगा।’ तुम्हारे द्वारा बनाया गया यह रूप मुझे अतिप्रिय है। भोग भी तुम्हारी रूचि का लगाना- ‘वही मोठ-बाजरे की खिचड़ी।’ श्रीबालाजी की इस भक्तवत्सलता से मोहनदासजी के नेत्रों से प्रेमाश्रु झरने लगे। उन्होंने दीनतापूर्वक प्रार्थना करते हुए कहा- हे हनुमानजी महाराज!आपने सालासर पधारकर इस दास के हृदय में हर्ष का संचार किया है। आपके पधारने के बाद यह पहला मंगलवार आया है। आपने मुझे अपनाकर बड़ी कृपा की है। इस अवसर पर मेरी यही प्रार्थना है कि मुझे मोह-माया की पहुँच से ऊपर ही रखना। उनके मुख से यह वाणी निकल पड़ी-
हणमत थारे हरष पछें आयो मंगलवार ।
ऊँचा म्हाने राखज्यो अंजनी राजकुँवार ॥
इसके बाद श्रीबालाजी महाराज को दाल-चूरमा के साथ मोठ-बाजरे की खिचड़ी का विशेष भोग लगाया गया। सब सन्तों और श्रद्धालुजनों ने प्रसाद पाया।
कुछ समय बाद ही मन्दिर का कार्य प्रारम्भ हो गया। श्रद्धालुजनों के प्रयास से संवत् 1815 में मन्दिर बनकर तैयार हो गया। मन्दिर में मूर्ति की स्थापना हुई। इस अवसर पर मोहनदासजी के बचपन के साथी सन्त राघवदासजी पुष्कर से पधारे। दूसरे साथी गरीबदासजी ने भी संन्यास ले लिया था। वे मोहनदासजी की जन्मभूमि रूल्याणी में रहकर ही तपस्या करते थे। वे भी इस अवसर पर पधारे। राघवदासजी ने मसखरी करते हुए मोहनदासजी से कहा- भैया!भगवान् मायाजाल फैलाकर भक्त की परीक्षा लेते हैं। आपके इस स्थान पर भी माया बरसने लगी है। सावधान रहना। माया भी मद्य के समान मादक होती है।
मोहनदासजी ने हँसते हुए उत्तर दिया –
माया मद्य बताय द्यो हाथ न भेडां म्हे ।
अंजनिसुत की आन कढ़ास्यां म्हाने कहसी के ॥
भैया!आप माया को मद्य बताते रहो। मुझे माया से क्या भय है? मैं तो इसके हाथ भी नहीं लगाता। मैंने माया को अंजनीसुत श्री हनुमानजी की शपथ दे रखी है। यह मुझे क्या कहेगी?
तभी उनके मुख से एक और वाणी निकल पड़ी –
माया मोहनदास नै दयी बंकड़े बीर ।
मांगल जीमो मेदनी दही चूरमा खीर ॥
मोहनदास को यह माया श्रीबालाजी ने दी है। यह माया उन्हीं को अर्पित है। उनके दर पर सारी धरती के भक्तजन मंगलवार को दही,चूरमा और खीर जीमते ही रहेंगे। यह परम्परा कभी टूटेगी नहीं।
मोहनदासजी ने विधि विधान से श्रीबालाजी की सेवा-पूजा प्रारम्भ कर दी। वे प्रातः 4 बजे उठकर नगारा बजाते। स्नानादि से निवृत्त होकर कुएँ के जल से गर्भगृह का प्रक्षालन कर अखण्ड डीप को घृत से पूरते। मंगला भोग निवेदित कर मंगला आरती करते। प्रसाद बाँटते। दोपहर में वैदिक विधान से राजभोग निवेदित करते। सायंकाल संध्या आरती करते। स्तुति के पश्चात् बालभोग लगाते। सभी बाल-गोपाल व भक्तजन भोग-प्रसाद पाते। इसके बाद शयन-आरती करते।
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दूर-दूर के यात्री श्रीबालाजी के दर्शन के लिए आने लगे थे। जात-जडूला, जागरण, सवामणी आदि के लिए श्रद्धालुओं का आगमन होता रहता था। संवत् 1844 में सीकरनरेश राव देवीसिंह ने राजकुमार लक्षमणसिंह के जडूले (मुण्डन) का संस्कार किया। श्रीबालाजी की कृपा से राव देवीसिंह ने सीकर पे हुए शत्रुओं के आक्रमण को विफल कर दिया। तब उन्होंने मन्दिर-परिसर में भवन का निर्माण कराया, जिससे यात्रियों के लिए ठहरने की उत्तम व्यवस्था हो गयी।
मोहनदासजी कोमल हृदय के क्षमाशील सन्त थे। उनकी इस विशेषता ने उन्हें सन्तशिरोमणि के रूप में विख्यात कर दिया। एक बार रात्रि में कुछ लुटेरे उदयरामजी के घर में घुस गये। लुटेरों से घर की रक्षा करते हुए उदयरामजी घायल हो गये। कनीराम और ईसरदास कान्हीदादी तथा गाँव वालों की सहायता से उदयरामजी को मन्दिर ले आये। मोहनदासजी ने मरणासन्न और बेहोश उदयरामजी को श्रीबालाजी के सामने लेटा दिया तथा धूणे की विभूति उनके माथे पर लगायी। वे करुण स्वर में उनके प्राणों की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। उनकी करुण पुकार सुनकर श्रीबालाजी ने उदयरामजी को जीवनदान दिया। उन्हें तत्काल होश आ गया तथा घावों की पीड़ा भी मिट गयी।
उधर कोलाहल से ग्रामीण जग गए। वे भागते हुए लुटेरों को पकड़कर मन्दिर में ले आये। लुटेरों ने अपराध के लिए क्षमा माँगी। ठाकुर सालमसिंहजी पता चलते ही मन्दिर में पहुँच चुके थे। वे लुटेरों को दण्डित करना चाहते थे, किन्तु सन्त का हृदय तो मक्खन से भी अधिक कोमल होता है। करूणामूर्ति मोहनदासजी ने उन लुटेरों को क्षमा कर दिया। लुटेरों लका हृदय बदल गया। वे लूटपाट छोड़कर नेकी के रस्ते पर चलने लगे।
इसी प्रकार उन्होंने एक मरते हुए किसान के प्राण बचाये। मोहनदासजी जिस जाँटी के नीचे तपस्या करते थे, उनकी साँगरी कहना निषिद्ध था। एक किसान ने उस जाँटी की साँगरी की सब्जी बनाकर खा ली। खाते ही वह बीमार पड़ गया। उसे मरणासन्न हालत में मन्दिर लाया गया।
मोहनदासजी का करुणापूर्ण हृदय उसे देखते ही द्रवित हो गया। उन्होंने धूणे की विभूति उसके माथे पर लगा दी। लगाते ही वह स्वस्थ हो गया। उसने अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी।
अन्तिम समय में कान्हीबाई अस्वस्थ रहने लगी थी। मोहनदासजी नित्य एक बार उसे सम्भालने अवश्य जाते और रामनाम की महिमा सुनाकर नाम जपने का उपदेश देते। कान्हीबाई की मृत्यु के बाद उनका कुटिया से बहार जाना कम हो गया। वे अधिकांशतः मौन व ध्यानमग्न ही रहते। मन्दिर की पूजा व्यवस्था का कार्य उदयरामजी को सौंप दिया। पर उनकी सेवा की प्रवृति में कोई कमी नहीं आयी थी। गाँव में पानी की कमी से ग्रामवासी परेशान थे। उन्होंने सं. 1848 में मन्दिर में भेंट में आयी धनराशि से लोकहितार्थ एक तालाब का निर्माण कराया। इससे ग्रामीणों और श्रद्धालु यात्रियों की जल की समस्या का समाधान हो गया। उन्होंने यात्रियों के ठहरने के लिए सात तिबारों का निर्माण कराया। यात्रियों के लिए भोजन-प्रसाद की व्यवस्था सेवाभाव से की जाती थी।
संवत् 1850 की वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को सन्तशिरोमणि मोहनदासजी ने जीवित समाधी लेने का निश्चय किया। उनके संकल्प को जानकार उदयरामजी और अन्य सब श्रद्धालुजन व्याकुल हो गये। पर जीवन्मुक्त सिद्ध सन्त शरीर के मोह से ऊपर उठ जाते हैं। उनके मन में जीने की भी कामना नहीं रहती। प्रेम की पराकाष्ठा में भक्त के लिए आराध्य का क्षणिक वियोग भी असह्य हो जाता है। उसे यह शरीर प्रभु से शाश्वत मिलन में बाधक लगता है। वह मुक्ति चाहता नहीं,क्योंकि मुक्ति होने पर भक्ति संभव नहीं। ऐसा भक्त समाधी के योग से इस भौतिक शरीर को ही दिव्यशरीर बना लेना चाहता है। प्रेम की यह दशा दैवी कृपा है जो विशिष्टजन पर ही उतरती है। मोहनदासजी की समाधी के दिन जिन-जिन को सुचना मिली वे सब मन्दिर में उपस्थित हो गये।
सूर्यदेव का रथ अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। आसमान में सिन्दूरी लालिमा घिर आयी थी। अस्त होता हुआ सूर्य उसी तरह लाल-लाल प्रकाश से शोभायमान था, जैसे उदय के समय होता है। श्रद्धालुजनों की पुष्पवर्षा के बीच सन्तशिरोमणि मोहनदासजी जीवित समाधिस्थ हो गये। समर्पित सेवा से इतिहास का एक अध्याय पूर्ण हो गया, ताकि अनुयायीजन द्वितीय अध्याय शुभारम्भ कर सकें। वट का बीज धरती माता के गर्भ में जाकर अपने आपको विसर्जित कर देता है ताकि उससे उत्पन्न वटवृक्ष अनन्त बीजों दे सके।
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पं. उदयरामजी के द्वारा संवत् 1852 में समाधिस्थल पर कान्हीबाई और मोहनदासजी की छतरियों का निर्माण कराया गया। समाधिस्थल अब मोहनमन्दिर के नाम से विख्यात है। यहाँ भाई-बहन चरण चिन्ह (पगल्या) पास-पास स्थित हैं। लक्ष्मनगढ़ के पं. जानकीलालजी पारीक सालासर में रहकर समाधी स्थल पर नित्य नियम से पूजा करते थे। उनके पुत्र पन्नारामजी पारीक भी विरक्त हो सालासर आ गये। वे अंजनीमाता की उपासना करने लगे। अंजनीमाता की उनपर कृपा हुई। उन्होंने अंजनीमाता के मन्दिर का निर्माण कराया। सालासर आने वाले भक्तजन श्रीबालाजी और अंजनीमाता के दर्शन कर अपने जीवन को सफल करते हैं। सन्तशिरोमणि मोहनदासजी द्वारा जिस सेवायज्ञ का शुभारम्भ किया गया था उसे उदयरामजी व परवर्ती पुजारी-परिवार ने जारी रखा। श्रीमोहनदासजी के आदर्श के अनुरूप सेवाकार्य को सुव्यवस्थित रूप से चलने के लिए ‘हनुमान् सेवा समिति’ की स्थापना की गयी। ‘हनुमान् सेवा समिति’ द्वारा शिक्षा,चिकित्सा,यात्री-आवास,मेलाव्यवस्था आदि विभिन्न क्षेत्रों में सेवाकार्य किये जा रहे हैं। श्रीमोहनदासजी ने सेवारुपी वट का जो पौधा लगाया था, वह सुयोग्य हाथों से सिञ्चित व संरक्षित होकर महान वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है। गोभक्त श्रीमोहनदासजी की गोसेवा की परम्परा को उनकी जन्मभूमि रूल्याणी ग्राम ने भी संजोकर रखा है। रूल्याणी गाँव में उनकी स्मृति में ‘सन्तशिरोमणि मोहनदासजी गोशाला’ की स्थापना कर गायों की निष्ठापूर्वक सेवा की जा रही है।
इति
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